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( १०३ ) सागारमणागारं, ठवणाकप्पं वयंति मुणिपवरा । तत्य पढमं जिणाणं, महामुणीणं च पडिरूवं ॥ १ ॥
भावार्थ-साकार अनाकार रूप स्थापना कल्पप्रवर मुनियों ने कहा है उसमें प्रथम साकार स्थापना वह है कि श्रीजिनके तथा महाएनि के प्रतिरूप ( सदृश-प्रतिमा ) हो ॥१॥
तं पुण मप्पडिहेरं, अपडिहेरं न मूलजिणविवं । पूजइ पुरिसेहि, न इत्थिाए असुइभावा ॥२॥
भावार्थ-वह पुन प्रातिहार्य सहित तथा प्रातिहार्य रहित श्रीमूलनायक जिनप्रतिमा को पुरुष पूजे स्त्री अशुचिवाली नहीं पूजे ॥२॥
काले सुइभूएणं, विसिठपुप्फाइहिं विहिणाउ । सारथुइथुत्तिगुरुई, जिणपूत्रा होइ कायव्वा ॥ ३ ॥
भावार्थ-काल वेला ऋतधर्म प्रा। वह स्त्री (शुचि ) पवित्र होके विशेष श्रेष्ठ पुष्पादि (धूप दीप अक्षत नैवेद्य फल ) करके विधि से द्रव्य पूजा और सार स्तुति थुइगित से श्रीजिनभाव पूजा करती हैं ॥ ३॥
पुरिसेणं बुद्धिमया, सुहबुद्धिं भावो गणितेणं । जत्तण होइयव्वं, सुहाणुबंधप्पहाणेणं ॥ ४॥
भावार्थ-शुभानुबंध करके प्रधान बुद्धिमान् पुरुष शुभ बुद्धि को भाव से भावना हुआ पूजा में यत्नवाला होय ॥ ४॥
संभवइ अकालेवि हु, कुसुमं महिलाणं तेण देवाणं । पूआए अहिगारो, न उहउ होइ मजुत्तो ॥५॥
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