________________
प्रतिकामति पश्चादागमनमालोच्य यथा ज्येष्ठमाचार्यादीन् वंदते पुनरपि गुरुं वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्ठः शृणोति पठति पृच्छति वा इत्यादि।
भावार्थ-साधु के उपाश्रय जा के साधु को नमस्कार करके सामायिनं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं इत्यादि श्रावश्यक सूत्र के अनुसार पहिली सावद्य योग परिवर्जन ( त्यागने ) रूप करेमि भंते सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि इत्यदि सामायिक दंडकउच्चरे एवं कृतसामायिक याने इस तरह पहिली सामायिक दंडक उच्चर कर श्रावक पीके इरियावही को पडिक्कमे, पीछे अागमन आलोच के यथा ज्येष्ठ प्राचार्य आदि को वंदना करे, फिर गुरु महाराज को वंदना करके प्रमार्जित आसन पर बैठा हुआ सुने, पठन करे वा पूछे इस तरह उपर्युक्त आगमवचनों के अनुसार और युक्ति के अनुसार तथा गुरु-परंपरा के अनुसार तपगच्छ के उपर्युक्त पूर्वजों ने अपने किये हुए ग्रंथों में नवमा सामायिक व्रत की विधि में श्रावक को सावध योग त्यागने रूप सामायिक दंडक पहिली उच्चर के निर्वद्य योग प्रतिसेवनरूप पीछे इरियावही करना, यह साफ़ ठीक लिखा है तो तपगच्छवालों को इस प्राज्ञा का भंग करना उचित है या अनुचित ?
११ [प्रश्न ] श्रीमहानिशीथसूत्र के वचन से ईरियावही पडिक्कमे विना चैत्यवंदन स्वाध्याय ध्यानादि नहीं करना मानते हो तो उपर्युक्त श्रीअावश्यकसूत्र बृहट्टीका प्रादि के वचनों से सावद्ययोग वर्जने के लिये पहिली करेमि भंते सामाइयं सावजं जोगं पच्चख्खामि इत्यादि सामायिक दंडक उच्चर के पीछे इरियावही करना, यह शास्रवचन प्रमाण क्यों नहीं मानते हो?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com