Book Title: Prashnottar Vichar
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 82
________________ ( ८४ ) तथा चैत्यवासिनो हि पराजयप्ररूपणात कुंवला इति नामध्येयं प्राप्ता एवं च सुविहितपक्षधारकाः श्रीजिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १०८० वर्षे खरतरविरुदधारका जाताः । इस तरह अनेक शास्त्रों में यह उपर्युक्त अधिकार स्पष्ट लिखा है, वास्ते तपगच्छ के श्रीआनंदसागरजी अपने पूर्वज श्रीसोमधर्मगणिजी महाराज के उचित तथा शास्त्र-संमत सत्य वचनों में सर्वथा शंका-रहित शुद्ध श्रद्धा धारण करें और द्वेषी के शास्त्रविरुद्ध कपोलकल्पित महामिथ्या अनुचित वचनों पर श्रद्धा नहीं रक्खें, क्योंकि शास्त्रविरुद्ध मिथ्यावचन के कदाग्रह से भवभ्रमण होता है । नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी के शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी के समय में खरतरगच्छ की मधुकराशाखा (पाट गादी) अलग हुई है, उसके स्थान में द्वेष से चामुंडिक मत निकला कहना, यह द्वेषी के कपोलकल्पित मिथ्या आक्षेपवचन हैं । और नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी के प्रशिप्य श्रीजिनदत्तसूरिजी के समय में खरतरगच्छ की रुद्रपल्लिया शाखा (पाट गादी) सं० १२०४ में अलग हुई है, उसके स्थान में द्वेष से १२०४ में ऊष्ट्रिकमत निकला कहना, यह भी द्वेषी के प्रत्यक्ष द्वेषभाववाले महामिथ्या कपोलकल्पित अनुचित आक्षेप वचन हैं । १२०४ में ऊष्ट्रिकमत हुअा, इसी महामिथ्या श्राक्षेपवचन के स्थान में १२०४ में श्रीजिनदत्तसूरिजी से खरतरगच्छ खरतरबिरुद खरतरमत की उत्पत्ति हुई, इत्यादि कल्पित अनेक मिथ्याप्रलापों से अपने झूठे कदाग्रह मंतव्य को सिद्ध करना कि नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज खरतरगच्छवालों की गुरुशिष्यपरंपरा में नहीं हुए । परंतु उपर्युक्त शास्त्रपाठों से प्रत्यक्षविरुद्ध इन महामिथ्या प्रलापों से अपने झूठे मंतव्य का जय कदापि नहीं कर सकते है। वास्ते अपने पूर्वज श्रीसोमधर्मपणिजी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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