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जीने अपनी रची हुई श्रीधर्मरत्नप्रकरण की टीका, उसकी प्रशस्ति में लिखे हैं । इन श्लोकों में तथा श्रीजगचंद्रसूरिजी के शिष्य श्रीविजयचंद्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीतेमकीर्त्तिसूरिजी ने संवत् १३३२ में श्रीबृहत्कल्पसूत्र की टीका रची है, उसकी प्रशस्ति में भी चित्रवालगच्छ में श्रीधनेश्वरसूरिजी उनके शिष्य श्रीभुवनचंद्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणिजी, उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरिजी इत्यादि लिखा है। किंतु न तो अपना या श्रीजगत्र्चंद्रसूरिजी का बृहत् गच्छ वा तपगच्छ ऐसा नाम या विशेषण लिखा और न तो उनके गुरु का नाम श्रीमणिरत्नसूरिजी लिखा और न तो श्रीजगञ्चंद्रसूरिजी ने जावज्जीव आचाम्लतप किया लिखा और न तो संवत् १२८५ में अमुक राजा ने तपगच्छ नाम या तपगच्छबिरुद दिया लिखा तथा ३२ दिगंबर जैनाचार्यों को अमुक विवाद में जितने से अमुक नगर के अमुक राजा ने श्री जगचंद्रसूरिजी को हीरला विरुद्ध दिया, यह भी नहीं लिखा है तथापि आप लोग अपनी तपगच्छ की पट्टावली से उक्त बातों को मानते हो तो श्रीसमवायांगसूत्र की टीका के अंत में ( श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दप्पयसां वाग्मिनां ) इस श्री अभयदेवसूरिजी के वाक्य से तथा अनेक शास्त्रसंमत खरतरगच्छ की पट्टावली के लेख से विदित होता है कि वाचाल और अहंकारी चैत्यवासियों को जितने से खरेतरे याने खरतर बिरुद धारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज भूमंडल में प्रख्यात हुए, उनके शिष्य नवांगटीकाकार श्रीस्थंभन पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगटकर्त्ता श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज हुए जिनसे खरतर नाम का गच्छ प्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ, इन अपने पूर्वजों की लिखी हुई सत्य बातों को क्यों नहीं मानते हो ?
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३ [ प्रश्न ] संवत् १२८५ वर्ष के पहिले रचे हुए किस ग्रंथ में श्रीजगचंद्रसूरिजी का बृहत् या बड़गच्छ वा वृद्धगच्छ लिखा है ?
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