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( ७८ ) श्रीकल्पांतर्वाच्य में तपगच्छ के श्रीहेमहंससूरिजी महाराज ने भिन्न भिन्न गच्छ के प्रभाविक आचार्यों के अधिकार में लिखा है कि
"खरतरगच्छे नवांगीत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिथया जिये शासनदेवीना वचनधी थंभणाग्रामे सेढी नदीने उपकंठे जयतिहुअणवत्तीसी नवीन स्तवना करके श्रीपार्श्वनाथजी नी मूर्ति प्रगट कीधी धरणेन्द्र प्रत्यक्ष थयो शरीरतणो कोढरोग उपशमाव्यो नवअंगनी टीका कीधी तच्छिष्य श्रीजिनवल्लभमूरि थया जिये निर्मल चारित्र सुविहितसंवेगपक्ष धारण करी अनेक ग्रंथतणो निर्माण कीधो तच्छिष्य युगप्रधान श्रीजिनदत्तमरिथया जिये उज्जैनीचित्तोड़ना मंदिरथी विद्यापोथी प्रगट कीधी देशावरों में विहार करते रजपूतादिकने प्रतिबोधीने सवालाख जैनी श्रावक कीधा इत्यादि"
श्रीसार्द्धशतकमूलग्रंथ के अंत में लिखा है किजिणवल्लहगणि-रइयं, सुहुमत्थ-वियारलवमिणं सुयणा ॥ निसुणंतु सुणंतु सयं, परेवि बोहिंतु सोहिंतु ॥ १ ॥
श्रीचित्रवालगच्छ के श्रीधनेश्वरसूरिजी महाराज विरचित श्रीसार्द्धशतकमूलग्रंथ की टीका में लिखा है कि
श्रीजिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसंग्राहिस्थानांगाधंगोपांगपंचाशकादिशास्त्रत्तिविधानावाप्तावदातकीर्ति सुधाधवलितधरामंडलानां श्रीमदऽभयदेवसूरीगां शिष्येण कर्ममकृत्यादिशंभीरशास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य रचितमिदं ।
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