Book Title: Prashnottar Vichar
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 74
________________ ( ७६ ) एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः ख्यातस्तथाऽन्योभुविबुद्धिसागरः । तयोर्विनेयेन विबुद्धिनाप्यलं वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥३॥ तयोरेव विनेयानां, तत्पदं चानुकुर्वतां । श्रीमतां जिनचंद्राख्यसत्प्रभूणां नियोगतः ॥ ४ ॥ श्रीमज्जिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनां । जिनभद्रमुनींद्राणामस्माकं चांघ्रिसेविनः ॥ ५ ॥ यशचंद्र गर्गाढ, सहाय्यात्सिद्धिमागता । परित्यक्ताऽन्यकृत्यस्य, युक्तायुक्तविवेकिनः ॥ ६ ॥ 66 भावार्थ - श्री आचारांग सूय्यगड़ांग सूत्र की टीका के अंत में – “ इत्याचार्यशीलांकविरचितायां श्रीआचारांगटीकायां द्वितीयः श्रुतस्कंधः समाप्तः इत्यादि" - टीकाकार श्रीशीलांकाचार्य महाराज ने लिखा है । किंतु श्रीमहावीर स्वामी से लेकर अपने सब पूर्वजों के नाम वा गुरु दादागुरु के नाम तथा अपना निग्रंथ गच्छ कोटिकगच्छादि नाम या विशेषण नहीं लिखे हैं । इसी तरह श्रीठाणांग आदि नवांगसूत्रटीका के अंत में श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज ने भी श्रीमहावीर स्वामी से लेकर अपने सब पूर्वजों के नाम तथा निग्रंथगच्छ १, कोटिकगच्छ २, वज्रशाखा ३, चंद्रकुल ४, बृहत् गच्छ ५, खरतरगच्छ ६ ये सब नाम या विशेषण प्रायः नहीं लिखे हैं, किंतु किसी अज्ञ के प्रश्न के उत्तर में कोई बुद्धिमान् संक्षेप प्रशंसा से अपने कुल का नाम तथा उस में अपने बाप दादे का नाम जैसा बतलाता है वैसा नवांगटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज ने भी बालजीवों के कुतर्क वा उनकी अज्ञानता को दूर करने के लिये उपर्युक्त श्लोकों में संक्षेप प्रशंसा से अपने कुल का नाम चंद्रकुल उसमें अपने दादा गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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