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उद्विग्नचित्त हुए उसके अनंतर अपने गुरु से पूछ कर शुद्ध क्रिया के निधान नवांगटीकाकार श्रीमद् प्रभयदेवसूरिजी महाराज के पास गए, उनसे उपसंपद ग्रहण करके उन्हीं के याने नवांगटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज के शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज हुए, अनुक्रमे सकल शास्त्रों को पढ़ कर महाविद्वान् हुए तथा पिंडविशुद्धि प्रकरण १, संघपट्टक २, षडशीति ३ इत्यादि अनेक प्रकरणशास्त्र किये तथा १०००० दश हजार वागड श्रावक नवीन जैनी किये और चित्रकूट नगर में श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज ने चंडिकादेवी को प्रतिबोधी और जीवहिंसा छुड़ाई तथा धर्म प्रभाव से धनवाला हुआ साधारण नाम का श्रावक ने कराया हुआ ७२ जिनालय मंडित श्रीमहावीर स्वामी के चैत्य ( मंदिर ) की प्रतिष्ठा करी । उसी चित्रकूट नगर में संवत् १९६७ में श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज को आचार्य पद नवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराज देवलोक होने से उनके वचन से उन्हीं के संतानीय श्रीदेवभद्राचार्य महाराज ने दिया; याने नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराज के पाट पर मुख्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज को आचार्य पद में स्थापन किये ।
नवांगटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज ने श्रीभगवती सूत्र की टीका के अंत में अपने पूर्वजों की पाट परंपरा इस ' तरह लिखी है कि
चांद्रे कुले सद्वनकक्षकल्पे - महामो धर्मफलप्रदानात् । छायान्त्रितःशस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् तत्पुष्पकल्पौ विलसद्विहारसद्गंध संपूर्णदिशौ समंतात् । बभूवतुः शिष्यवरावनी चवृत्ती श्रुतज्ञानपरागवंतौ ॥ २ ॥
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