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( ५५ ) कारणे स्थानांतरमप्याऽऽश्रयति अतिभाद्रपदशुक्लपंचम्यां तु वृक्ष मूलादावपि निवसतीति हृदयं ।।
अर्थ-प्रथम के ५० दिनों में तिस प्रकार का रहने का स्थान नहीं मिला इत्यादि कारण योगे विहार करके दूसरे स्थान को भी श्रीवीरप्रभु आश्रय करते हैं, किंतु आषाढ़ चतुर्मासी से ५० वें दिन भाद्र शुक्ल पंचमी को तो वृक्ष मूल आदि स्थान में भी वर्षाकाल में रहते हैं, यह सूत्रकार श्रीगणधर महाराज का प्राशय टीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज ने लिखा है । और यह समवायांग सूत्र का उक्त पाठ केवल चंद्रसंवत्सर के पर्युषण संबंधी है । इसलिये इस पाठ को अभिवर्द्धितवर्ष के पर्युषण के संबंध में बतला कर अधिकमाल नहीं मानना, और ८० दिने दूसरे भाद्रपद अधिक मास में पर्युषण करना तथा १०० दिने या पाँच महीने दूसरे कार्तिक अधिक मास में कार्तिक चतुर्मासी प्रतिक्रमण और विहार करना, यह तपगच्छवालों का मंतव्य सर्वथा उपर्युक्त सूत्रपाठ से तथा टीकापाठ से प्रत्यक्ष विरुद्ध है। क्योंकि ७० दिन शेष समवायांग वाक्य की आज्ञा मानते हो तथा अधिक माल को गिनती में नहीं मानते हो तो पाँच महीने या १०० दिने दूसरे कार्तिक अधिकमास में कार्तिक चतुर्मासी कृत्य कदाग्रह से क्यों करते हो? ७० दिने स्वाभाविक प्रथम कार्तिकमास में चतुर्माप्ती कृत्य करने में किस पागम के वचनों को बाधा आती है सो प्रमाण बतलाना उचित है, अन्यथा उक्त कदाग्रह को त्याग देना चाहिये क्योंकि जव जनटिप्पने के अनुसार पौष और आषाढ़ मास की ही वृद्धि होती थी अन्य मालों की नहीं। तब पाँच महीने फाल्गुन में तथा पाँच महीने दूसरे प्राषाढ़ में चतुर्मासी कृत्य होते थे और चार महीने कार्तिक मास में चतुर्मासी कृत्य होते थे, इसलिये पाँच महीने दूसरे कार्तिक अधिकमास में चतुShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com