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(५३ ) स्पष्ट मना लिखी है वास्ते श्रावण या भाद्रपद या पाश्विन मास की वृद्धि होने पर ५० दिने पर्युषण पर्व के पश्चात् कार्तिक सुदी १४ पर्यंत १०० दिन उस क्षेत्र में रहने की आज्ञा हो चुकी, क्योंकि ७० दिने आश्विन सुदी १४ को चतुर्मासी प्रतिक्रमणादि कृत्य करने शास्त्रकारों ने नहीं माने हैं और आपके पूर्वजों के लेखानुसार जैनटिप्पने से २० दिने श्रावण सुदी ४ को तथा लौकिक टिप्पने से ५० दिने दूसरे श्रावण सुदी ४ को पयुषणपर्व करने संगत हैं, यह तो आपको मानना ही पड़ेगा, अन्यथा आज्ञाभंग दोष आपके शिर पर ही रहेगा। क्योंकि शास्त्रकारों ने स्पष्ट मना लिखा है । इसीलिये ८० दिने भाद्रपद में अथवा दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पर्युषणकृत्य करने आगमसंमत कदापि नहीं हो सकते हैं ।
श्रीठाणांग सूत्र की टीका में श्रीमद्अभयदेवसूरि जी महाराज ने लिखा है कि
यत्र संवत्सरेऽधिकमासको भवति तत्राऽऽषाढ्याः २० विंशतिदिनानि यावदनभिग्रहिक अनिश्चित आवासोन्यत्र चंद्रसंवत्सरे सविंशतिरात्रं मासं पंचाशतं दिनानीति अत्र चैते दोषाः छक्कायविराहणया इत्यादि
अर्थ-जिप्त संवत्सर में जैनटिप्पने के अनुसार पौष तथा आषाढ अधिकमास हो उस अभिवद्धित वर्ष में प्राषाढ़ चतुर्मासी से २० दिन तक अनिश्चित रहने का है, बाद निश्चित १०० दिन रहने का है। क्योंकि विहार करने में छकाय विराधनादि दोष लगे।
और चंद्रवर्ष में आषाढ़ चतुर्मासी से ५० दिन तक अनिश्चित रहने का है, बाद ७० दिन उस क्षेत्र में साधु को निश्चित रहने
का है । और भी देखिये कि जैनटिष्पने के अनुसार पौष और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com