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नहीं, इस बहाने से श्रीतीर्थकर गणधर टीकाकार आदि महाराजों के उपर्युक्त वचनों के अर्थ को तपगच्छवाले छुपा कर दोष के भागी भले बनें, परन्तु तपगच्छवाले अपने पक्ष की सिद्धि नहीं कर सकते हैं। क्योंकि तपगच्छवालों को यह अर्थ तो मानना ही पड़ेगा कि पंचम प्रतिमाधारी श्रावक उपर्युक्त पाठों के अनुसार दिवस में ब्रह्मचारी रहे और रात्रि में वह श्रावक स्त्रियों का वा स्त्री के भोगों का प्रमाण करता है, इसीलिये वह श्रावक रात्रि में ब्रह्मचारी नहीं । और तपगच्छवालों को यह अर्थ भी मानना ही पड़ेगा कि श्रावक को पौषध उपवास व्रत और अतिथिसंविभाग व्रत उपर्युक्त पाठों के अनुसार प्रतिनियत दिवसों में ( अनुष्ठेय ) करने योग्य हैं, प्रतिदिवसों में आचरण करने योग्य नहीं हैं ।
महाशय श्रीमानंद सागरजी को विदित करते हैं कि आपके पौषध संबंधी दूसरे प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त सिद्धान्तपाठों के अनुसार खरतरगच्छवालों की तरफ से समझ लेना, और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर शास्त्रपाठों से यथार्थ प्रकाशित करनेः
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१ [ प्रश्न ] तपगच्छवाले लिखते हैं कि-पर्वाऽन्यदिवसेष्वsपि पौषधग्रहणे न कश्चिदविधिः किंतु सावद्यवर्जनादिना विशेषलाभ एवेति प्रतिपत्तव्यं । अर्थात्-पर्व से अन्य दिनों में भी पौषध ग्रहण करने में न कोई प्रविधि होता किंतु सावद्यकार्य ( पापकृत्य ) वर्जनादि धर्मकृत्यों से विशेष लाभ ही होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । इस कथन पर तपगच्छवालों से हम यह पूछते हैं कि पौषध उपवास व्रत ग्रहण करने के लिये शास्त्रकारों ने उपर्युक्त पाठों में अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या तथा पर्युषण और चौवीस तीर्थकरों के कल्याणक संबंधी अनेक अन्य तिथियाँ बतलाई हैं,
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