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( ३६ ) इसलिये उक्त शास्त्रों की आज्ञानुसार उन तिथियों में पौषध करने से विशेष लाभ है, सो तो उन सर्व पर्वतिथियों में पौषध ग्रहण नहीं कर सकते हो और पर्व से अन्य दिनों में पौषध ग्रहण करने में विशेष लाभ बतलाते हो; तो जब द्वितीया आदि दो पर्वतिथियाँ होती हैं तब सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की सम्पूर्ण पहिली दूज आदि पर्वतिथियों में भी तपगच्छवाले कुशील नीलोतरी का छेदन भेदन आदि पापकृत्यों को ग्रहण करके उन पर्वतिथियों की विराधना द्वारा विशेष पाप रूपी अलाभ को क्यों स्वीकार करते हैं ? क्योंकि सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की संपूर्ण पहिली दूज प्रादि पर्वतिथियों में ब्रह्मचर्य पालन, नीलोतरी का त्याग आदि धर्मकृत्य करने में न कोई अविधि होता है किंतु सावद्य कार्य (पापकृत्य ) वर्जने से हजारों जीवों को धर्म का विशेष लाभ ही होगा । तपगच्छवाले इस बात को क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ?
क्योंकि तपगच्छनायक श्रीरत्नशेखरसूरिजी ने श्राद्धविधि ग्रन्थ में लिखा है कि
उदयंमि या तिहि, सा पमाणा इयरा उ कीरमाणाणं । आणाभंगणवत्था, मिच्छत्त विराहणा पावं ॥१॥
अर्थ-सूर्योदययुक्त जो पर्वतिथि हो सो प्रमाण करना (मानना ) उचित है, ( इयरा) अन्य अपर्व तिथियाँ करने में प्राज्ञाभंग अवस्था तथा मिथ्यात्व और पर्वतिथि विराधने से पाप बंधन होता है।
२[प्रश्न ] दो पूर्णिमा और दो अमावास्या होने पर तपगच्छवाले सूर्योदययुक्त चतुर्दशी पर्वतिथिका निषेध करके उस पर्वतिथि को झूठी कल्पना से दूसरी तेरस मान कर प्रब्रह्मचर्य (कुशील) हरासाग (नीलोतरी) का छेदन भेदन प्रादि प्रापकृत्यों से
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