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( ३८ ) पवत्तियं समत्तसंघेण य अणुमन्निग्रं तव्वसेण य पख्खि
आईणि वि चउदासिए आयरिआणि अन्नहा आगमुत्ताणि पुणिमाएरात्ति।
अर्थ-कारण से श्रीकालकाचार्य महाराज ने चौथ को श्रीपर्युषण पर्व करने की प्रवृत्ति की और समस्त संघ ने ( अणु ) पश्चात् चौथ को पर्युषण पर्व माना है उसी के वश से अमावास्या पूर्णिमा संबंधी पाक्षिक और चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य भी चतुर्दशी पर्वतिथि में आचरण किये हैं अन्यथा आगम में कहे हुए पाक्षिक चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य अमावास्या पूर्णिमा में करने के हैं सो आचरणा से चतुर्दशी पर्वतिथि में करते हैं, इसलिये तेरस तिथि में पाक्षिक और चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने आगम और आचरणा से विरुद्ध हैं।
और श्रीहीरविजयसूरिजी कृत हीरप्रश्न ग्रंथ में लिखा है कि. पंचमी तिथिस्त्रुटिता भवति तदा तत्तपः कस्यां तिथौ क्रियते, पूर्णिमायां च त्रुटितायां कुत्रेति अत्र पंचमी तिथिस्त्रुटिता भवति तदा तत्तपः पूर्वस्यां तिथौ क्रियते, पूर्णिमायां च त्रुटितायां त्रयोदशी चतुर्दश्योः क्रियते, त्रयोदश्यां विस्मृतौ तु प्रतिपद्यऽपीति ।
इस पाठ में पूर्णिमा की त्रुटि होने पर पूर्णिमा संबंधी तप त्रयोदशी श्रादि तिथियों में करना लिखा है परंतु पूर्णिमा संबंधी पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य तेरस तिथि में करने नहीं लिखे हैं।
४[प्रश्न] चतुर्दशी का क्षय होने से चतुर्दशी पर्वतिथि संबंधी नीलोतरी का त्याग तथा शील व्रत और पूजा प्रादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com