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( ३६ ) नियम तेरस तिथि में पालने युक्त हैं, किंतु अमावास्या पूर्णिमा संबंधी पाक्षिक और चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य तेरस तिथि में करने पागम और आचरणा से संमत नहीं हैं, इसी लिये पाक्षिक और चातुर्मासिक संबंधी प्रतिक्रमणादि कृत्य चौदस न हो तो अमावास्या और पूर्णिमा में ही करने आगम से संमत है । तथापि तपगच्छवाले तेरस तिथि में पाक्षिक और चातुर्मासिक प्रातेक्रमणादि कृत्य करते हैं सो अनुचित है या नहीं?
क्योंकि श्रीउमास्वातिजी श्रीहरिभद्रसूरिजी आदि महाराजों के वचनों पर कौन भव्य श्रद्धावान् नहीं होगा ? देखो उन महापुरुषों के युक्तियुक्त वचनों कोतिहिपड़णे पुव्वतिही, कायन्वा जुनधम्मकजेसु । चाउद्दसी बिलोवे, पुगिण मिश्र परिवपड़िकमणं ॥१॥ (उ.) भवइ जहिं तिहिहाणी पुञ्चतिही विद्धिा य मा कीरइ । पख्खी न तेरसीए कुजा सा पुगिणमासीर ॥१॥ (ह.) छट्ठीसहिया न अटमी, तेरसिसहि न पख्खि होइ । पड़िवयसहिअंन कयावि, इगंभणिवीपरागेहि ॥१॥ (ज्यो.)
अर्थ--पर्वतिथि का क्षय हो तो पूर्वतिथि में धर्मकृत्य करने युक्त हैं, जैसा कि अमावास्या या पूर्णिमा पर्वतिथि का क्षय होने पर पूर्वतिथि चतुर्दशी में पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने युक्त हैं और चतुर्दशी का क्षय होने पर अमावास्या या पूर्णिमा संबंधी चातुर्मासिक या पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कृत्य अमावास्या या पूर्णिमा पर्वतिथि में करने उचित हैं । जैसे कि चौथ न हो तो पंचमी में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना उचित है तीज में नहीं, वैसे ही तेरस तिथि में पाक्षिक
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