Book Title: Prashnottar Vichar
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 20
________________ ( २२ ) भागवतसंपन्नश्च शीलसंपन्नश्च कृतद्वंद्वादिगादयस्तैः संपन्नः समृद्धः संयुक्तः चशब्दः समुच्चयवचनः प्रतिपन्नाणुव्रतस्याऽगारिणस्तेषामेवाणुव्रतानां दाापादनाय शीलोपदेशः शीलं च गुणशिक्षाव्रतमयं तत्र गुणव्रतानि त्रीणि दिगुपभोगपरिभोगाऽनर्थदंडविरतिसंज्ञान्यऽणुव्रतानां भावनाभूतानि तथा अणुव्रतान्यपि सकृदगृहीतानि यावज्जीवं भावनीयानि शिक्षाव्रतपदानि सामायिक १ देशावकाशिक २ पौषधा ३ ऽतिथिसंविभागाख्यानि ४ चत्वारि तत्र प्रतिदिवसाऽनुष्ठेये द्वे सामायिक १ देशावकाशिके २ पुनः पुनरुच्चार्येते इतियावत् । पौषधा १ ऽतिथिसंविभागौ २ च प्रतिनियत दिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयौ इति । भावार्थ-व्रती साधु और श्रावक है, अणुव्रती श्रावक दिग्व्रतादि संयुक्त होता है, प्रतिपन्न अणुव्रत श्रावक के उन्हीं पाँच अणुव्रतों की दृढ़ता के लिये शीलोपदेश है। यहाँ पर शील जो है सो गुण और शिक्षा व्रतमय है। उनमें श्रावक के गुणव्रत तीन हैं वो दिग्वत १, उपभोगपरिभोग २, अनर्थदंडविरति ३ नाम के हैं। यह पाँच अणुव्रत के भावनाभूत है तथा पाँच अणुव्रत भी श्रावक ने एक वार ग्रहण किये यावज्जीवन पर्यंत भावने योग्य हैं और श्रावक के शिक्षा व्रत सामायिक १, देशावकाशिक २, पौषध ३, अतिथिसंविभाग ४ नाम के चार हैं। उनमें प्रतिदिवस करने योग्य दो हैं-सामायिक १ और देशावकाशिक २। यह पुनः पुनः उच्चरणे के हैं, ऐसा जानना । पौषध १ और अतिथिसंविभाग २ यह दो व्रत प्रतिनियतदिवसों में करने योग्य है । प्रतिदिवस नाचरणे योग्य नहीं है, ऐसा निषेध बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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