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( २३ ) इसी तरह श्रीपंचाशकवृत्ति में भी पाठ । यथातत्र प्रतिदिवसाऽनुष्ठेये सामायिक १ देशावकाशिके २ पुनः पुनरुच्चार्येते इतिभावना । पौषधोपवासा १ ऽतिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसाऽनुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयाविति इतिशब्दः प्रस्तुतार्थ परिसमाप्त्यर्थः इति
अर्थ-श्रावक को सामायिक १, देशावकाशिक २, यह दोनों व्रत प्रतिदिवस (अनुष्ठेय ) करने योग्य है याने पुनः पुनः उच्चरणे में आते हैं, ऐसा समझना । और पौषधउपवास १ अतिथिसंविभाग २ यह दोनों व्रत प्रतिनियत पर्वरूप दिवसों में ( अनुष्टय ) करने योग्य है, किंतु प्रतिदिवसों में आचरण करने योग्य नहीं है। ऐसे प्रकट निषेध अक्षर लिखे हैं । वास्ते शास्त्र पाठों की आज्ञा के अनुसार प्रतिनियत पर्वरूप दिवसों में पौषध करने का विशेष लाभ को त्यागकर अनियम से अपवरूप दिवसों में पौषध करने का आग्रह करना ठीक नहीं । क्योंकि उपर्युक्त पाठों में पौषध प्रतिदिवसों में आचरण करने योग्य नहीं है, ऐसा लिखा हैं तथापि तपगच्छवाले पर्व अपर्व रूप प्रतिदिवसों में पौषध करना बतलाते हैं तो अपने कथनानुसार तथा शास्त्रपाठों की आज्ञा के अनुसार प्रतिपदा आदि चौवीश तीर्थकरों के कल्याणक आदि की संबंधवाली सर्व पर्वतिथियों में पौषध करके अपर्व तिथियों में भी पौषध करे तो विशेष लाभ समझेंगे अन्यथा चौवीश तीर्थकरों के कल्याणक आदि पर्वतिथियों में पौषध नहीं करके अपर्वतिथियों में पौषध करना और विशेष लाभ दिखलाना यह तो शास्त्राज्ञा तथा अपने माने हुए पर्व पौषध मंतव्य के प्रतिकूल होने से ठीक नहीं है और चतुर्दशी आदि पर्वतिथि की वृद्धि होने पर प्रथम पर्वतिथि में पौषधादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com