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( २१ ) जो व्रत हैं सो प्रतिनियत दिनों में [ अनुष्ठेय ] करने योग्य है, किंतु प्रतिदिवस पाचरण करने योग्य नहीं है, यह निषेध लिखा है। इसी तरह श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज ने श्रावफप्रज्ञप्तिवृत्ति में भी लिखा है । तत्संबंधी पाठ । यथा
तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावगासिके पुनः पुनरुच्चार्ये इति भावना पोषधोपवासाऽतिथिसंविभागौ तु प्रतिनियत दिवसाऽनुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयाविति ।
अर्थ--श्रावक धर्म के ४ शिक्षाव्रतों में सामायिक और देशावगासिक, ये दोनों व्रत प्रतिदिवस अनुष्ठेय है अर्थात् पुनः पुनः उच्चरणे योग्य हैं-ऐसा समझना, और पोषध-उपवास अतिथिसंविभाग, ये दोनों व्रत प्रतिनियत दिनों में अनुष्ठेय हैं, किंतु प्रतिदिवसों में आचरण करने योग्य नहीं हैं । ऐसा निषेध दिखलाया है । श्रीपंचाशकचूर्णि में भी पाठ । यथा।
तत्थ पइदिवसाणुठेयाणि सामाइय-देसावगासियाई पुणो२ उच्चारिज्झतित्ति भणियं होइ पोसहोववासा-तिहिसंविभागापुण पइनिययदिवसाणुठेया।
__ अर्थ-श्रावक धर्म के चार शिक्षा व्रतों में, सामायिक १, देशावकाशिक २, ये दोनों व्रत प्रतिदिवस [ अनुष्य] करने योग्य हैं, याने पुनः पुनः उच्चरणे में आते हैं, ऐसा समझना
और पोषधोपवास १, अतिथिसंविभाग २, ये दोनों व्रत प्रतिनियत दिवसों में [ अणुठेया ] करने योग्य हैं।
श्रीतत्त्वार्थसूत्र की टीका में भी पाठ । यथाव्रती अगारी अनगारश्च अणुव्रतोऽगारी दिग्देशाऽनर्थ दंडविरति-सामायिक-पौषधोपवासोपभोगपरिभोगाऽतिथिसंवि
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