Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा ग्रहीष्यमाणग्राहिणःप्रामाण्यम,न गृहीतग्राहिणः? अपि च अवग्रहेहादीनां गृहीतग्राहित्वेऽपि प्रामाण्य मिष्यत एव । न चैषां भिन्नविषयत्वम् ; एवं शवगृहीतस्य अनीहनात्, ईहितस्य अनिश्चयादसमञ्जसमापद्येत । न च पर्यायापेक्षया अनधिगतविशेषावसायादपूर्वार्थत्वं वाच्यम् ; एवं हि न कस्यचिद् गृहीतग्राहित्वमित्युक्तप्रायम् ।
१६. स्मृतेश्च प्रमाणत्वेनाभ्युपगताया गृहीतग्राहित्वमेव सतत्त्वम् । यैरपि स्मृतेरप्रामाण्य मिष्टं तैरप्यर्थादनुत्पाद एव हेतुत्वेनोक्तो न गृहीतग्राहित्वम्, यदाह
"न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम्।
अपि त्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम्” । न्यायम० पृ० ६३ ] १७-अथ प्रमाणलक्षणप्रतिक्षिप्तानां संशयानध्यवसायविपर्ययाणां लक्षणमाह
अनुभयत्रोभयकोटिस्पर्शी प्रत्ययः संशयः ॥ ५॥ १८.अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयान्तपरिमर्शनशीलं ज्ञानं सर्वात्मना शेत इवात्मा यस्मिन् सति स संशयः, यथा अन्धकारे दूरादूर्वाकारवस्तूपलम्भात् साधकबाधक प्रमाणाभावे सति 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति प्रत्ययः । ग्रहीष्यमाणग्राही ज्ञान को प्रमाण और गृहीतग्राही ज्ञान को अप्रमाण माना जाता है ? इसके अतिरिक्त अवग्रह, ईहा,अवाय आदि ज्ञान ग्रहीतग्राही होने पर भी प्रमाण माने हो जाते हैं । इन ज्ञानों का विषय भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं होता । यदि इन ज्ञानों के द्रव्य भिन्न भिन्न माने जायेंगे तो अवग्रह के द्वारा जाना हुवा द्रव्य ईहा का विषय नहीं हो सकेगा और ईहा के विषाभूत द्रव्य का अवायदि के द्वारा निश्चय नहीं हो सकेगा। इस प्रकार सब असमंजस हो जाएगा। यदि ऐसा कहें कि पर्याय की अपेक्षा से (इनके विषयोंमें विभिन्नता होने के कारण) उत्तरोत्तर ज्ञान अगृहीत विषय का निश्चय करते हैं अतः इन सभी ज्ञानों के विषय अपूर्व होते हैं। तो यह ठीक नहीं होगा, क्योंकि ऐसा मानने पर कोई भी ज्ञान गृहीतग्र हो नहीं हो सकेगा। यह बात कही जा चुकी है।
१६-स्मृति को प्रमाण रूप से स्वीकार किया गया है वह गृहीतग्राही ही है । जिन लोगों ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना है उन्होंने भी इसके लिए “ पदार्थ से उत्पन्न न होना" कारण बताया है, न कि गृहं तग्राहिता को । जैसा कि कहा है-न स्मृतेः” इत्यादि । स्मृति की अप्रमाणता गृहीतग्राहिताके कारण नहीं, अपितु 'पदार्थ से उत्पन्न न होना' उसको अप्रमाणता का कारण है।
१७-अब प्रमाणलक्षण के प्रसंगपर निषेध के लिये प्रस्तुत संशय, अनध्यवसाय और विपर्यय के लक्षण कहते हैं। [अनुभयत्र ० इति] जिस वस्तु में दो धर्म नहीं हैं, उसमें दो धर्मों को स्पर्श करने अनिश्चित रूप से जानने वाला ज्ञान संशय कहलाता है।॥५॥
१८-उभय स्वभाव से रहित वस्तु में उभय धर्मो-कोटियों का स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय कहा गया है । इसमें आत्मा पूरी तरह सो सा जाता है। हल्का अन्धकार हो,दूर से ऊँची कोई वस्तु दिखाई देती हो और साधक-बाधक प्रमाणों का अभाव हो-उस समय 'यह ढूंठ खडा है या पुरुष ?' इस प्रकार का जो सामान्य ज्ञान होता है वह संशय है।