Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
१०० - " अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगः ” ( न्यायसू०५.२.२२) नाम निग्रहस्थानं भवति । उपपन्नवादिनमप्रमादिनमनिग्रहार्हमपि 'निगृहीतोऽसि' इति यो ब्रूयात्स एवाभूतदोषोद्भावनान्निगृह्यते । एतदपि नाज्ञानाद्व्यतिरिच्यते २० ।
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१०१-“सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः " ( न्यायसू०५. २०२३ ) नाम निग्रहस्थानं भवति । न प्रथमं कञ्चित् सिद्धान्तमभ्युपगम्य कथामुपक्रमते । तत्र च सिषाधयिषितार्थसाधनाय परोपालम्भाय वा सिद्धान्तविरुद्धमभिधत्ते सोऽपसिद्धातेन निगृह्यते । एतदपि प्रतिवादिनः प्रतिपक्षसाधने सत्येव निग्रहस्थानं नान्यथेत२१ ।
१०२ -- " हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः " ( न्यायसू० ५.२.२४) असिद्धविरुद्धादयो निग्रहस्थानम् । अत्रापि विरुद्धहेतुद्भावनेन प्रतिपक्ष सिद्धेनिग्रहाधिकरणत्वं युक्तम् असि - द्वाद्भावने तु प्रतिवादिना प्रतिपक्षसाधने कृते तद्युक्तं नान्यथेति २२ ||३४|| १०३ - तदेवमक्षपादोपदिष्टं पराजयाधिकरणं परीक्ष्य सौगताभिमतं तत् परीक्ष्यते -
नाप्यसाधनाङ्गवचनादोषोद्भावने ॥ ३५ ॥
१०० - निरनुयोज्यानुयोग -- निग्रहस्थान को प्राप्त न होने पर भी निग्रहस्थानप्राप्ति का आरोप लगाना निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान कहलाता है। जो युक्तिसंगत कथन कर रहा है' अप्रमादी है अर्थात् बराबर स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण कर रहा है और निग्रह के योग्य नहीं है, उसे जो 'तुम निगृहीत हुए' ऐसा कहता है, वह स्वयं इस निग्रहस्थान से निगृहीत हो जाता है।
यह निग्रहस्थान भी अज्ञान में ही अन्तर्गत है, उससे भिन्न नहीं है ।
१०१ - अपसिद्धान्त - किसी सिद्धान्त को स्वीकार करके नियमविरुद्ध कथा करना अपसिद्धान्त निग्रहस्थान है । तात्पर्य यह है कि कोई वादी पहले किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेता है किन्तु अपने इष्ट साध्य को सिद्ध करने के लिए या परपक्ष को दूषित करने के लिए अपने स्वीकृत सिद्धान्त से विरुद्ध भाषण करता है, वह अपसिद्धान्त निग्रहस्थान से निगृहीत होता है । किन्तु यह निग्रहस्थान तभी - निग्रहस्थान हो सकता है जब प्रतिवादी का पक्ष सिद्ध हो जाय, अन्यथा नहीं ।
१०२ - हेत्वाभास - पूर्वोक्त असिद्ध विरुद्ध आदि हेत्वाभास भी निग्रहस्थान हैं। यहां विरुद्ध हेतु का उद्भावन करने से स्वतः प्रतिपक्ष की सिद्धि हो जाने के कारण निग्रहस्थान मानना उचित है । यदि असिद्धता आदि का उद्भावन किया जाय तो प्रतिवादी जब प्रतिरक्ष की सिद्धि कर ले तब ही निग्रहस्थान होता है, अन्यथा नहीं ॥३४॥
१०३ - अक्षपाद द्वारा उपदिष्ट निग्रहस्थानों की परीक्षा करके अब बौद्धसम्मत निग्रहस्थानों की परीक्षा करते हैं
सूत्रार्थ - असाधनाङ्गवचन और अदोषोदद्भावन भी पराजय नहीं हैं ॥ ३५॥