Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 176
________________ प्रमाणमीमांसा १६९ स्वपक्षं साधयेन्नान्यथा । वचनाधिक्यं तु दोषः प्रांगेव प्रतिविहितः । यथैव हि पञ्चीवयवप्रयोगे वचनाधिक्यं निग्रहस्थान तथा व्यवयवप्रयोगे न्यूनतापि स्याद्विशेषाभावात् । प्रतिज्ञादीनि हि पञ्चाप्यनुमानाङ्गम--"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः" ( न्यायसू०१. १. ३२ ) इत्यभिधानात् । तेषां मध्येऽन्यतमस्याप्यनभिधाने न्यूनताल्यो दोषोऽनुषज्यत एव "हीनमन्यतमेनापि न्यूनम" (न्यायसू०५. २. १२ ) इति वचनात् । ततो जयेतरव्यवस्थायां नान्यन्निमित्तमुक्तानिमित्तादित्यलं प्रसङ्गेन ॥३५॥ ११०-अयं च प्रागुक्तश्चतुरङ्गो वादः कदाचित्पत्रालम्बनमप्यपेक्षतेऽतस्तल्लक्षणमत्रावश्याभिधातव्यं यतो नाविज्ञातस्वरूपस्यास्यावलम्बनं जयाय प्रभवति न चाविज्ञातस्वरूपं परपत्रं भेत्तुं शक्यमित्याहअपने पक्ष को सिद्ध न कर सके तो उसे विजय प्राप्त नहीं हो सकती । वचनाधिक्य दोष का उत्तर पहले दिया जा चुका है । पाँच अवयवों का प्रयोग करना यदि बौद्ध को दृष्टि में अधिक नामक निग्रहस्थान है तो तीन अवयवों का प्रयोग करना नैयायिक की दृष्टि से न्यून नामक निग्रहस्थान है । इन दोनों पक्षों में युक्ति समान है। प्रतिज्ञा आदि पांचों अनुमान के अंग हैं। न्यायसूत्र में कहा है--'प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, और निगमन, यह अनुमान के अवयव हैं। इन में से किसी भी एक अवयव का कथन न करने से न्यूनता दोष का प्रसंग होता है । कहा भी है-किसी भी एक अवयव से हीन प्रयोग न्यून दोष है। इस प्रकार जय और पराजय की व्यवस्था का पूर्वोक्त निमित्त--स्वपक्ष की सिद्धि और असिद्धि-के सिवाय अन्य कोई निमित्त नहीं हो सकता। अब यह चर्चा समाप्त की जाती है ॥३५॥ ११०-पूर्वोक्त चतुरंग वाद कभी-कभी पत्र के आधार पर भी होता है । अतएव यहाँ पत्र का लक्षण बतलाना भी आवश्यक है । क्योंकि जब तक पत्र का स्वरूप न जान लिया जाय तब तक उसका अवलम्बन विजय प्रदान नहीं करा सकता। इसके अतिरिक्त पत्र का स्वरूप जाने बिना प्रतिपक्षी के पत्र का भेदन भी नहीं किया जा सकता। इस कारण पत्र का स्वरूप कहते हैं -१ -अपूर्ण समाप्त १-खेद है कि इसके आगे का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जहाँ तक ज्ञात है, यह भी नहीं मालूम हो सका कि यह रचना ही अपूर्ण रह गई या पूर्ण उपलब्ध नहीं हो रही है । इसी ग्रंथ की पूर्व पीठिका में आचार्य में लिखा है-'पञ्चभिरघ्यायः शास्त्रमेतदरचयदाचार्यः' अर्थात् आचार्य ने पांच अध्यायों में इस शास्त्र को रचना की। उस पर से ऐसा आभास होता है कि संभवतः इसके मूलसूत्र तो पूरे पांच अध्यायों में रचे गये हों। टीका के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।

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