Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
१६३ १०४-स्वपक्षस्यासिद्धिरेव पराजयो 'न' 'असाधनाङ्गवचनम्' अदोषोद्भावनम्' च । यथाह धर्मकीत्तिः
असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ।" - (वादन्यायः का० १) १०५-अत्र हि स्वपक्षं साधयन् असाधयन् वा वादिप्रतिवादिनोरन्यतरोऽसाधनाङ्गवचनाददोषोद्भावनाद्वा परं निगृह्णाति? । प्रथमपक्षे स्वपक्षसिद्ध्यवास्य परा. जयादन्योद्भावनं व्यर्थम् । द्वितीयपक्षे असाधनाङ्गवचनाद्युद्भावनेपि न कस्यचिज्जयः पक्षसिद्धरुभयोरभावात् ।
१०६-यच्चास्य व्याख्यानम्-साधनं सिद्धिस्तदङ्गं त्रिरूपं लिङ्गं तस्यावचनम्तूष्णीम्भावो यत्किञ्चिद्भाषणं वा, साधनस्य वा त्रिरूपलिङ्गस्याङ्गं समर्थनं विपक्ष बाधकप्रमाणोपदर्शनरूपं तस्यावचनं वादिनो निग्रस्थानमिति-तत् पञ्चावयवप्रयोगवादिनोऽपि समानम् । शक्यं हि तेनाप्येवं वक्तुं सिद्धयंगस्य पञ्चावयवप्रयोगस्यावचनात् सौगतस्य वादिनो निग्रहः । ननु चास्य तदवचनेऽपि न निग्रहः, प्रतिज्ञानिगमनयोः पक्षधर्योपसंहारसामर्थ्यन गम्यमानत्वात्, गम्यमानयोश्च वचने पुनरुक्तत्वानुष
१०४-जैसा कि पूर्व में कह आए हैं, स्वपक्ष को असिद्धि ही पराजय है, असाधनांगवचन और अदोषोदभावन नहीं। धर्मकीतिने कहा है--'असाधनांगवचन और अदोषोदभावन, यह दो ही निग्रहस्थान हैं। इनसे भिन्न कोई निग्रहस्थान नहीं है.अतएव उन्हें स्वीकार नहीं किया गया है।'
१०५-बौद्धों को इस मान्यता के सम्बन्ध में विचारणीय है कि-वादी और प्रतिवादी में से कोई भी असाधनांगवचन और अदोषोभावन के द्वारा दूसरे को निगृहीत करता है सो अपने पक्ष को सिद्ध करता हुआ निगृहीत करता है अथवा सिद्ध न करता हुआ? प्रथम पक्ष में स्वपक्ष की सिद्धि से ही विरोधी पक्ष का पराजय हो जायगा, फिर दूसरे दोष की उद्भावना करना वृथा है । दूसरे पक्ष में असाधनांगवचन आदि दोषों का उदभावन करने पर भी किसी को जय की प्राप्ति नहीं होगी, क्योंकि दोनों के पक्ष की सिद्धि नहीं हुई है। , १०६-'असाधनांगवचन' की एक व्याख्या इस प्रकार की जाती है-साधन अर्थात् सिद्धि का अंग है-त्रिरूप लिंग, उसका अवचन अर्थात् प्रयोग न करना-चुप्पी साध लेना या यद्वा तहा बोलना । अथवा साधन-त्रिरूप लिंग के अंग (समर्थन) का प्रयोग न करना अर्थात् जो विपक्ष में बाधक प्रमाण न दिखलाना । तात्पर्य यह है कि तीन लक्षणों वाले हेतु का प्रयोग न करना अथवा हेतु का समर्थन न करना असाधनांगवचननामक निग्रहस्थान कहलाता है । किन्तु यह बाल तो पंचावयव प्रयोगवादी (नैयायिक) के लिए भी समान है । वह भी कह सकता है कि सिद्धि के अंग-पंचावयवप्रयोग का कथन न करने से सौगत का निग्रह हो जाता है। शंका-पांच अवयवों का प्रयोग न करने पर भी सौगत का निग्रह नहीं माना जा सकता; क्योंकि प्रतिज्ञा और निगमन का पक्षधर्मोपसंहार (उपनय) से ही ज्ञान हो जाता है । स्वतः ज्ञान को शब्दों
१-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति लक्षणवाला हेतु ।