Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 167
________________ १६० प्रमाणमीमांसा र्थ्यते । तावता च परोक्तहेतोर्दूषणात्किमन्योच्चारणेन; । अतो यन्नान्तरीयका साध्यसिद्धिस्तस्यैवाप्रत्युच्चारणमननुभाषणं प्रतिपत्तव्यम् । अर्थवं दूषयितुमसमर्थः शास्त्रार्थ परिज्ञानविशेष विकलत्वात्; तदायमुत्तराप्रतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरननुभाषणादिति १४ । ९५ - पर्षदा विज्ञातस्यापि वादिवाक्यार्थस्य प्रतिवादिनो यदज्ञानं तदज्ञानं नामनिग्रहस्थानं भवति । अविदितोत्तरविषयो हि क्वोत्तरं ब्रूयात् ? । न चाननुभाषणमे - वेदम्, ज्ञातेऽपि वस्तुन्यनुभाषणासामर्थ्यदर्शनात् । एतदप्यसाम्प्रतम्, प्रतिज्ञाहान्यादिनिग्रहस्थानानां भेदाभावानुषङ्गात् तत्राप्यज्ञानस्यैव सम्भवात् । तेषां तत्प्रभेदत्वे वा निग्रहस्थानप्रतिनियमाभावप्रसङ्गः, परोक्तस्याऽर्धाऽज्ञानादिभेदेन निग्रहस्थानानेकत्वप्रसङ्गात् १५ । ९६ - परपक्षे गृहीतेऽप्यनुभाषितेऽपि तस्मिन्नुत्तराप्रतिपत्तिरप्रतिभा नाम निग्रहस्थानं भवति । एषाप्यज्ञानान्न भिद्यते १६ । い ९७–“कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेपः " न्यायमू० ५. २. १९) नाम निग्रहस्थानं भवति । सिषाधयिषितस्यार्थस्याशक्य साधनतामवसाय कथां विच्छिनत्ति - 'इदं सन करता है । ऐसी स्थिति में वादी के कहे शेष शब्दों को दोहराने की क्या आवश्यकता है ? अतएव जिन शब्दों के दोहराए विना साध्य की सिद्धि न हो सकती हो, उन्हीं को दोहराना अननुभाषण निग्रहस्थान समझना चाहिए । कदाचित् प्रतिवादी शास्त्र के अर्थ के विशिष्ट परिज्ञान से विकल होने के कारण इस प्रकार दूषण देने में समर्थ न हो तो उत्तर न सूझने के कारण ही उसका तिरस्कार ( पराजय ) जाएगा, अननुभाषण से नहीं । ९५ - अज्ञान - वादी के द्वारा प्रयुक्त वाक्य का अर्थ सभ्य समझ लें किन्तु प्रतिवादी की समझ में न आना अज्ञान नामक निग्रहस्थान है । प्रतिवादी उत्तर के विषय को हो नहीं समझेगा तो उत्तर किसका देगा ? इस निग्रहस्थान को अननुभाषण में अन्तर्गत नहीं कर सकते, क्योंकि अनुभाषण का असामर्थ्य तो ज्ञात वस्तु में भी हो सकता है । नैयायिकों की यह मान्यता समीचीन नहीं है, क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थान पृथक् स्वीकार कर लेने पर प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थान अलग नहीं रह सकेंगे, क्योंकि उनमें भी अज्ञान ही होता है । यदि प्रतिज्ञाहानि आदि को अज्ञान निग्रहस्थान का प्रभेद मान लिया जाय तो निग्रहस्थानों की प्रतिनियत संख्या ( बाईस ) कायम नहीं रहेगी । फिर तो वादी के आधे कयन को न समझने से भी पृथक् निग्रहस्थान हो जाएगा। इस प्रकार अनेक निग्रहस्यान हो जाएँगे । ९६ - अप्रतिभा - वादी के पक्ष को समझ लेने पर भी और अनुभाषण करने पर भी उसका उत्तर न सूझना अप्रतिभानामक निग्रहस्थान है । ९७ - विक्षेप - किसी कार्य का व्यासंग बतलाकर कथा का विच्छेद करना - बीच में से ही उसे समाप्त करना, विक्षेप निग्रहस्थान है । वादी जिस साध्य को सिद्ध करना चाहता है' उसे • सिद्ध करना आवश्यक मालूम होने पर वीच में ही कथा ( वाद ) को समाप्त करता है मेरा

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