Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा बोद्धा यथा घटः, न च न बोद्धात्मेति । तथा, यो यस्याः क्रियायाः कर्ता न स तद्विषयो यथा गतिक्रियायाः कर्ता चैत्रो न तद्विषयः ज्ञप्तिक्रियायाः कर्ता चात्मेति ।।
___५०-अथ प्रकाशस्वभावत्व आत्मनः कथमावरणम् ?, आवरणे वा सततावरणप्रसङ्गः; नैवम् ; प्रकाशस्वभावस्यापि चन्द्रार्कादेरिव रजोनीहाराभ्रपटलादिभिरिव ज्ञानावरणीयादिकर्मभिरावरणस्य सम्भवात्, चन्द्रार्कादेरिव च प्रबलपवमानप्रायै-- ानभावनादिभिविलयस्येति ।
५१--ननु सादित्वे स्यादावरणस्योपायतो विलयः; नैवम् ; अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात्, तद्वदेवानादेरपि ज्ञानावरणीयादि-- कर्मणः प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन विलयोपपत्तेः।
५२--न चामूर्तस्यात्मनः कथमावरणमिति वाच्यम् ; अमूर्ताया अपि चेतनाशक्तेमदिरामदनकोद्रवादिभिरावरणदर्शनात् ।
५३--अथावरणीयतत्प्रतिपक्षाभ्यामात्मा विक्रियेत न वा ? । किं चातः ? । ज्ञापक नहीं होता, जैसे घट । आत्मा ज्ञापक न हो, ऐसा तो है नहीं, अतएव प्रकाशस्वभाव है।
तथा-जो जिस क्रिया का कर्ता होता है, वह उस क्रिया का विषय नहीं होता, जैसे गतिक्रिया का कर्ता चैत्र गतिक्रिया का विषय नहीं होता । आत्मा ज्ञप्तिक्रिया का कर्ता है, अतएव उसका विषय नहीं है।
५०-प्रश्न-आत्मा प्रकाशस्वभाव है तो उस पर आवरण कैसे आ गये ? यदि आ गये हैं तो सदैव क्यों नहीं रहते ?
उत्तर-जैसे चन्द्रमा और सूर्य प्रकाशशील हैं, फिर भी उन पर रज, नीहार और मेघपटल आदि के द्वारा आवरण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा पर भी ज्ञानावरणीय आदि कर्मो के द्वारा आवरण आ जाते हैं। और जैसे तीव्र वाय के चलने से चन्द्र-सूर्य के आवरण का विलय हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान भावना आदि से आत्मा के आवरण भी नष्ट हो जाते हैं।
५१-शंका-आवरण सादि हों तो ही उपाय से उनका विलय होना संभव है।
समाधान-नहीं, अनादिकालीन होने पर भी खार मृत्पुटपाक आदि के द्वारा जैसे स्वर्ण का मल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अनादि ज्ञानावरणीय आदि आवरणों का भी, उनके विरोध रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र) के अभ्यास से विनाश होना संभव है।
५२-शंका-अमूर्त आत्मा पर आवरण कैसे हो गये?
समाधान--जैसे अमूर्त चेतनाशक्ति पर मदिरा एवं मदनकोद्रव आदि से आवरण आ जाता है . ५३-शंका-आवरणों तथा आवरणों के प्रतिपक्ष-रत्नत्रय आदि के निमित्त से आत्मा में विकार (अन्यथापन) आता है या नहीं ? और उसका परिणाम क्या होता है ? जैसे कि