Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 144
________________ प्रमाणमीमांसा :१३७ प्रत्यवस्थान प्राप्त्यप्राप्तिसमे जाती । यथा यदेतत् कृतकत्वं त्वया साधनमुपन्यस्तं तत्कि प्राप्य साधयत्यप्राप्य वा ? । प्राप्य चेत्, द्वयोविद्यमानयोरेव प्राप्तिर्भवति, न सदसतोरिति । द्वयोश्च सत्त्वात् कि कस्य साध्यं साधनं वा ?९ । अप्राप्य तु साधनत्वमयुक्तमतिप्रसङ्गादिति १० । अतिप्रसङ्गापादनेन प्रत्यवस्थानं प्रसङ्गसमा जातिः। यथा यद्यनित्यत्वे कृतकत्वं साधनं कृतकत्व इदानीं कि साधनम् ? । तत्साधनेऽपि किं साधनमिति ? ११। प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवस्थानं प्रतिद्दष्टान्तसमा जातिः। यथा अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् घटवदित्युक्ते जातिवाद्याह-यथा घटः प्रयत्नानन्तरीयकोऽनित्यो दृष्ट एवं प्रतिदृष्टान्त आकाशं नित्यमपि प्रयत्नानन्तरीयकं दृष्टम्, कूपखननप्रयत्नानन्तरमुपलम्भादिति । न चेदमनैकान्तिकत्वोद्धावनम्, भङ्गयन्तरेण प्रत्यवस्थानात् १२ । अनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थानमनुत्पत्तिसमा जातिः। यथा अनुत्पन्ने शब्दाख्ये मिणि कृतकत्वं धर्मः क्व वर्तते ?। तदेवं हेत्वभावादसिद्धिरनित्यत्वस्येति१३ (९-१०) प्राप्तिसमा-अप्राप्तिसमा-प्राप्ति और अप्राप्ति का विकल्प खड़ा करके हेतु का निरास करना प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा जातियां हैं । यथा-आपने कृतकत्व हेतु का जो प्रयोग किया है सो वह साध्य को प्राप्त करके साधता है या बिना प्राप्त किये ही ? यदि प्राप्त करके साधता है, ऐसा कहो तो प्राप्ति तो दो विद्यमान पदार्थों को ही होती है-एक विद्यमान हो और दूसरा अविद्यमान हो तो प्राप्ति नहीं होती, और जब दोनों विद्यमान हैं तो कौन किसका साधन होगा? अगर कहो कि कृतकत्व हेतु साध्य को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध करता है तो यह कथन अनुचित है । प्राप्त किये बिना कोई किसी को साध नहीं सकता। (११) प्रसंगसमा-अतिप्रसंग का आपादन करके निरास करना । जैसे-यदि शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए कृतकत्व हेतु प्रयोग करते हो तो कृतकत्व को सिद्ध करने के लिए क्या हेतु है ? और उस हेतु को सिद्ध करने के लिए भी कौन-से हेतु का प्रयोग करते हो? (१२) प्रतिदृष्टान्तसमा-विरोधी दृष्टान्त के द्वारा निरास करना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है। यथा-शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रयत्नजनित है, जैसे-घट; इस प्रकार वादी के कहने पर जातिवादी कहता है-जैसे-घट प्रयत्नजनित होने से अनित्य देखा जाता है, उसी प्रकार व्यतिरेक दृष्टान्त आकाश नित्य होते हुए भी प्रयत्नजनित देखा जाता है, क्योंकि कूप खोदने के प्रयत्न के पश्चात् आकाश का उपलंभ होता है ! यह हेतु में अनेकान्तिक दोष का उद्भवन करना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका तरीका दूसरा होता है कौर यह दोष दूसरे तरीके से प्रकट किया गया है। (१३) अनुत्पत्तिसमा-अनुत्पत्ति दिखा कर निरास करना । जैसे-जब शब्द धर्मी उत्पन्न नहीं होता तब कृतकत्व कहाँ रहता है ? अर्थात् वह होता ही नहीं । इस प्रकार हेतु का अभाव होने से अनित्यत्व साध्य की सिद्धि नहीं होती।

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