Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
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८६ - अभिधेयरहितवर्णानुपूर्वीप्रयोगमात्रं निरर्थकं नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा अनित्यः शब्दः कचटतपानां गजडदबत्वाद घझढधभवदिति । एतदपि सर्वथार्थशून्यत्वान्निग्रहाय कल्पेत, साध्यानुपयोगाद्वा ? । तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, सर्वथार्थशून्यशब्दस्यैवासम्भवात्, वर्णक्रमनिर्देशस्याप्यनुकार्येणार्थेनार्थवत्त्वोपपत्तेः । द्वितीय विकल्पे
सर्वमेव निग्रहस्थानं निरर्थकं स्यात् साध्यसिद्धावनुपयोगित्वाविशेषात् । किञ्चिद्विशेषमात्रेण भेदे वा खाट्कृत - हस्तास्फालन - कक्षापिट्टितादेरपि साध्यानुपयोगिनो निग्रहस्थानान्तरत्वानुषङ्ग इति
८७ यत् साधनवाक्यं दूषणवाक्यं वा त्रिरभिहितमपि परिषत्प्रतिवादिभ्यां बोद्धुं न शक्यते तत् अविज्ञातार्थं नाम निग्रहस्थानं भवति । अत्रेदमुच्यते - वादिना त्रिरभिहितमपि वाक्यं परिषत्प्रतिवादिभ्यां मन्दमतित्वादविज्ञातम्, गूढाभिधानतो वा द्रुतोच्चाराद्वा ? | प्रथमपक्षे सत्साधनवादिनोऽप्येतन्निग्रहस्थानं स्यात्, तत्राप्यनयोर्मन्दमतित्वेनाविज्ञातत्वसम्भवात् । द्वितीयपक्षे तु पत्रवाक्यप्रयोगेऽपि तत्प्रसङ्गः, गूंढापर वादी निगृहीत होता है तो प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि होने से ही उसका निग्रह हो जाएगा इस अर्थान्तरनिग्रहस्थान से नहीं । दूसरे पक्ष को स्वीकार किया जाय तो भी इस अर्थान्तर निग्रहस्थान से ही उसका निग्रह नहीं हो सकता क्योंकि दोनों के ही पक्ष की सिद्धि नहीं हुई है।
८६- अभिधेयरहित वर्णानुपूर्वी मात्र को निरर्थक निग्रहस्थान कहते हैं, अर्थात् अनुक्रम से ऐसे वर्णों का उच्चारण करना कि जिनका कुछ भी अर्थ न हो, वह निरर्थक निग्रहस्थान है । यथा शब्द अनित्य है, कचटतप का गजडदब होने से, जैसे घझढधभ । इस निग्रहस्थान को सर्वथा अर्थशून्य होने से निग्रह का कारण मानते हो अथवा साध्य में उपयोगी न होने से ? पहला पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वथा अर्थशून्य शब्द का होना ही असंभव है । वर्णक्रम का निर्देश भी अन्ततः अनुकार्य अर्थ से अर्थवान् होता ही है । अर्थात् उससे भी किसी न किसी का अनुकरण ध्वनित होता है । दूसरा पक्ष अंगीकार करो तो सभी निग्रहस्थान निरर्थक कहलाएँगे, क्योंकि साध्यसिद्धि में अनुपयोगी हैं। थोडे से अन्तर के कारण यदि पृथक् निग्रहस्थान मानते हो तो खटखट करना, हाथ फटकारना और कांख पीटना आदि भी जो साध्य में अनुपयोगी हैं, अलग निग्रहस्थान मानने पडेंगे ।
८७- अविज्ञातार्थ- जो साधन वाक्य या दूषणवाक्य तीनबार बोलने पर परिषद् और प्रतिवादी की समझ में न आवे वह अविज्ञातार्थ नामक निग्रहस्थान कहलाता है । इसके विषय में प्रष्टव्य यह है कि वादी के तीन बार बोलने पर भी परिषद् और प्रतिवादी मन्दबुद्धि होने के कारण न समझ पावें, गूढ शब्दों के प्रयोग के कारण न समझ सकें ? अथवा जल्दी-जल्दी उच्चारण करने से न समझ सकें ? प्रथम पक्ष में समीचीन साधन बोलने वाला भी निगृहीत हो जाएगा, क्योंकि मन्द होने के कारण परिषद् और प्रतिवादी सत्साधन को न समझ सकें, यह संभव है। दूसरा पक्ष स्वीकार करो तो पत्रवाक्य में भी अविज्ञातता दोष मानना पडेगा ।