Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 162
________________ प्रमाणमीमांसा १५५ ८९-यदि पुनः पदनरर्थक्यमेव वाक्यनरर्थक्यं पदसमुदायात्मकत्वात् तस्य; तहि वर्णनरर्थक्यमेव पदनरर्थक्यं स्यात् वर्णसमुदायात्मकत्वात् तस्य । वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात् पदस्यापि तत्प्रसङ्गश्चेत्, तर्हि पदस्यापि निरर्थकत्वात् तत्समुदायास्मनो वाक्यस्यापि नैरर्थक्यानुषङ्गः। पदस्यार्थवत्त्वेन (वत्त्वे च)पदार्थापेक्षयाः (वर्णार्थापेक्षया) वर्णस्यापि तदस्तु प्रकृतिप्रत्ययादिवत् न खलु प्रकृतिः केवला पदं प्रत्ययो वा । नाप्यनयोरनर्थकत्वम् । अभिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्वे; पदस्यापि तत् स्यात् । यथैव हि प्रकृत्यर्थः प्रत्ययेनाभिव्यज्यते प्रत्ययार्थश्च प्रकृत्या तयोः केवलयोरप्रयोगात् तथा देवदत्तस्तिष्ठतीत्यादिप्रयोगस्याद्यन्तपदार्थस्य त्याद्यन्तपदार्थस्य च स्त्याद्यन्तपदेनाभिव्यक्तेः केवलस्याप्रयोगः । पदान्तरापेक्षस्य पदस्य सार्थकत्वं प्रकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवर्णस्य समानमिति ९। ९०-प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनवचनक्रममुल्लघ्यावयवविपर्यासेन प्रयुज्यमानम ८९-यदि कहा जाय कि वाक्यों की निरर्थकता पदों की ही निरर्थकता है, क्योंकि पदों का समूह ही वाक्य कहलाता है तो वर्गों को निरर्थकता ही पदों की निरर्थकता होनी चाहिए क्योंकि वर्णों का समूह ही पद कहलाता है। शका-वर्ण सर्वत्र निरर्थक होते हैं, अतएव वर्गों की निरर्थकता को ही पद की निरर्थकता मानने से पद भी सर्वत्र निरर्थक हो जाएंगे। समाधान-पद भी निरर्थक होते हैं अतएव पदों का समूह वाक्य भी निरर्थक हो जाएगा। शंका-वाक्यार्थ की अपेक्षा पद भले निरर्थक माना जाय किन्तु पदार्थ की अपेक्षा तो वह सार्थक ही होता है, अर्थात् वाक्य से प्रकट होने वाला अर्थ पद से नहीं प्रगट होता तथापि पद अपना अर्थ तो प्रगट करता ही है । अतः पद को निरर्थक नहीं कहा जा सकता । समाधान-तो यही बात वर्ण के विषय में भी मानना चाहिए। अर्थात् पद से व्यक्त होने वाला अर्थ वर्ण से व्यक्त न होने पर भी वर्ण अपना अर्थ तो प्रगट करता ही है, से प्रकृति (मूल शब्द) और प्रत्यय । न केवल प्रकृति को पद कह सकते हैं, न केवल प्रत्यय को। यह दोनों (पृथक्-पृथक् भी) निरर्थक नहीं है । यदि व्यक्त अर्थ को प्रकट न करने से इन्हें निरर्थक कहा जाय तो पद भी वाक्य के समान व्यक्त अर्थ को प्रकट नहीं करता है, अतः वह भी निरर्थक हो जाएगा। जैसे प्रकृति का अर्थ प्रत्यय के द्वारा व्यक्त होता है और प्रत्यय का अर्थ प्रकृति के द्वारा व्यक्त होता है, इस कारण उनका साथ-साथ प्रयोग होता है अकेलो-प्रकृति या अकेले प्रत्यय का नहीं, उसी प्रकार 'देवदत्तः तिष्ठति, इत्यादि प्रयोगों में स्याद्यन्तपद ( देवदत्तः ) का अर्थ त्याद्यन्तपद (तिष्ठति) अर्थ स्त्यादि पद से प्रकट होता है, अतएव इनका अकेले का प्रयोग नहीं किया जाता। अगर कहो कि पदान्तरसापेक्ष पद सार्थक होता है तो प्रकृतिसापेक्ष प्रत्यय प्रत्ययसापेक्ष प्रकृति आदि वर्गों में भी यही बात है, अर्थात् परस्पर सापेक्ष वर्ण भी सार्थक होते हैं। (इस प्रकार अपार्थक नामक निग्रहस्थान निरर्थक निग्रहस्थान से पृथक् नहीं है।) ९०-अप्राप्तकाल-पहले प्रतिज्ञा, फिर हेतु, फिर उदाहरण, फिर उपनय और फिर निण .

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