Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 161
________________ १५४ प्रमाणमीमांसा भिधानतया परिषत्प्रतिवादिनोर्महाप्राज्ञयोरप्यविज्ञातत्वोपलम्भात् । अथाभ्यामवि. ज्ञातमप्येतत् वादी व्याचष्टे ; गूढोपन्यासमप्यात्मनः स एव व्याचष्टाम्, अव्याख्याने तु जयाभाव एवास्य, न पुनर्निग्रहः, परस्य पक्षसिद्धरभावात् । द्रुतोच्चारेप्यनयोः कथञ्चित् ज्ञानं सम्भवत्येव, सिद्धान्तद्वयवेदित्वात् । साध्यानुपयोगिनि तु वादिनः प्रला. पमात्रे तयोरविज्ञानं नाविज्ञातार्थ वर्णक्रमनिर्देशवत् । ततो नेदमविज्ञातार्थ निरर्थकाद्विद्यत इति ८ । ८८-पूर्वापरासङ्गतपदसमूहप्रयोगादप्रतिष्ठितवाक्यार्थमपार्थकं नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा दश दाडिमानि षडपूपा इत्यादि । एतदपि निरर्थकान भिद्यते । यथैव हि गजडदबादौ वर्णानां नैरर्थक्यं तथात्र पदानामिति । यदि पुनः पदनरर्थक्यं वर्णनरर्थक्यादन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरं तहि वाक्यनरर्थक्यस्याप्याभ्यामन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरत्वं स्यात् पदवत्पौर्वापर्येणाऽप्रयुज्यमानानां वाक्यानामप्यनेकधोपलभ्यात् - "शङ्खः कदल्यां कदली च भेर्यां तस्यां च भेर्यां सुमहद्विमानम् । __तच्छङ्घ भेरीकदलीविमानमुन्मत्तगङ्गप्रतिमं बभूव ॥" इत्यादिवत् । क्योंकि पत्रवाक्य में गूढ शब्दों का प्रयोग होने से महाप्राज्ञ परिषत् और प्रतिवादी भी उसे समझ नहीं पाते । कदाचित् कहा जाय कि परिषद् और प्रतिवादी पत्रवाक्य के जिस पद को नहीं समझ पाते उसकी व्याख्या स्वयं वादी कर देता है तो गूढ साध्य साधन वाक्य की व्याख्या भी वादी स्वयं कर देगा । अगर वह व्याख्या नहीं तो करेगा उसको विजय प्राप्त नहीं होगी, किन्तु वह निगृहीत नहीं होगा क्योंकि प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि नहीं हुई है। जल्दी-जल्दी उच्चारण करने के कारण अविज्ञातार्थ कहो सो ठीक नहीं क्योंकि जल्दी उच्चारण करने पर भी परिषद् और प्रतिवादी को कथंचित् ज्ञान हो ही जाएगा। आखिर वे वादी और प्रतिबादी-दोनों के सिद्धान्त के जानकार होते हैं । वादी यद साध्य के लिए अनुपयोगी प्रलापमात्र करे और उसका परिषद् तथा प्रतिवादी को ज्ञान न हो तो वह वर्णानुपूर्वी के उच्चारण के समान अविज्ञातार्थक नहीं कहा जा सकता ।इस प्रकार यहअविज्ञातार्थ निग्रहस्थान निरर्थक से भिन्न नहीं है । ८८-अपार्थक-पूर्वापर-असंगत पदों के समूह का प्रयोग करने से वाक्य का अर्थ ही सिद्ध न होना अपार्थक निग्रहस्थान है । जैसे दस दाडिम, छह पूआ इत्यादि । यह निग्रहस्थान भी निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न नहीं है। जैसे निरर्थक निग्रहस्थान में गजडदब आदि में वर्ण निरर्थक हैं उसी प्रकार यहाँ पद निरर्थक हैं । अगर कहा जाय कि वर्णों को निरर्थकता से पदों को निरर्थकता भिन्न है, अतएव यह निग्रहस्थान पृथक् है तब तो वाक्यों को निरर्थकता वर्गों और पदों को निरर्थकता से भिन्न होने के कारण एक अलग निग्रहस्थान मानना पडेगा। क्योंकि एक दूसरे के आगे पीछे प्रयुक्त होने वाले निरर्थक वाक्य भी अनेक प्रकार के देखे जाते हैं। जैसे-'कदली में शंख है, भेरी में कदली है, उस भेरी में बहुत बड़ा विमान है, वह शंख भेरी कदली औय विमान उन्मत्त गंगा के समान हो गए। इत्यादि

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