Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 156
________________ प्रमाणमीमांसा १४९ मैन्द्रियकं नित्यं दृष्टं कस्मान्न तथा शब्दोऽपीत्येवं स्वप्रयुक्तहेतोराभासतामवस्यन्नपि कथावसानमकृत्वा प्रतिज्ञात्यागं करोति-यौन्द्रियकं सामान्यं नित्यम्, कामं घटोऽपि नित्योऽस्त्विति । स खल्वयं साधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसजन् निगमनान्तमेव पक्ष जहाति । पक्षं च परित्यजन् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात् पक्षस्येति" (न्यायमा० ५. २. २ ) । तदेतदसङ्गतमेव, साक्षाद् दृष्टान्तहानिरूपत्वात् तस्याः तत्रैव धर्मपरित्यागात् । परम्परया तु हेतूपनयनिगमनानामपि त्यागः, दृष्टान्तासाधुत्वे तेषामप्यसाधुत्वात् । तथा च प्रतिज्ञाहानिरेवेत्यसङ्गतमेव । वात्तिककारस्तु व्याचष्टे-"दृष्टश्चासावन्ते स्थितत्वादन्तश्चेति दृष्टान्तः पक्षः । स्वदृष्टान्तः स्वपक्षः । प्रतिद्दष्टान्तः प्रतिपक्षः । प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनुजानन प्रतिज्ञां जहाति-यदि सामान्यमन्द्रियकम् नित्यं शब्दोऽप्येवमस्त्विति" (न्यायवा०५ २. २.) । तदेतदपि व्याख्यानमसङ्गतम्. इत्थमेव प्रतिज्ञाहानेरवधारयितुमशक्यत्वात् । न खलु प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनुजानत एव प्रतिज्ञात्यागो येनायमेक एव प्रकारः प्रतिज्ञाहानौ स्यात्, अधिक्षेपादिभि का विषय होता है वह अनित्य होता है,जैसे घट । वादी के इस प्रकार कहने पर प्रतिवादी दूषण देता है-'सामान्य इन्द्रिय का विषय होता हुआ भी जैसे नित्य है, उसी प्रकार शब्द भी नित्य क्यों नहीं हो सकता ?' इस प्रकार कहने पर वादी अपने पर प्रयुक्त हेतु को आभासता (अनैकान्तिकता ) को जान लेता है, फिर भी कथा का अन्त न करके अपनी प्रतिज्ञा का त्याग करता हुआ कहता है-'यदि सामान्य इन्द्रिय का विषय होते हुए भी नित्य है तो भले घट भी नित्य हो ! इस प्रकार वादी अपने पक्षमाधक दृष्टान्त में (घट में) नित्यता का प्रसंग देता हुआ अपने निगमनपर्यन्त पक्ष का ही परित्याग करता है ( शब्द की अनित्यतारूप पक्ष को त्याग देता है )और पक्ष का परित्याग करता हुआ प्रतिज्ञा को ही त्याग देता है, क्योंकि पक्ष का आधार प्रतिज्ञा है) सपक्षभत घट की नित्यता की नयी प्रतिज्ञा करता है। यह प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान है । नयायिकों का यह कथन असंगत है । उपर्युक्त प्रतिज्ञाहानि साक्षात् दृष्टान्तहानि रूप हैं' क्योंकि यहाँ दृष्टान्त में ही धर्म का परित्याग किया गया है । हाँ, परम्परा से हेतु ,उपनय और निगमन का भी त्याग किया है, क्योंकि दृष्टान्त असमीचीन होने पर हेतु आदि भी असमीचीन हो जाते हैं, । ऐसी स्थिति में इसे प्रतिज्ञा की ही हानि कहना असंगत है। न्यायवात्तिककार ने प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः' इस सूत्र में आए हुए दृष्टान्त शब्द का अर्थ पक्ष किया है। स्वदृष्टान्त अर्थात् स्वपक्ष और प्रतिदृष्टान्त अर्थात् प्रतिपक्ष । आशय यह हुआ कि प्रतपक्ष के धर्म को स्वपक्ष में स्वीकार करता हुआ वादी अपनी प्रतिज्ञा का त्याग करता है, यथा-'यदि सामान्य इन्द्रिय का विषय होता हुआ भी नित्य है तो शब्द भी नित्य हो जाय । किन्तु वात्तिककार का यह व्याख्यान भी संगत नहीं है । प्रतिज्ञा की हानि इसी एक प्रकार से होती है, ऐसा अवधारण करना शक्य नहीं है। प्रतिपक्ष के धर्म को अपने पक्ष में स्वीकार करने वाला ही प्रतिज्ञा का त्याग करता है, ऐसी बात तो है नहीं, जिससे कि प्रतिज्ञाहानि का यही एक प्रकार

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