Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 148
________________ प्रमाणमीमांसा १४१ त्वादित्युक्ते जातिवाद्याह प्रयत्नस्य द्वैरूप्यं दृष्टम्-किञ्चिदसदेव तेन जन्यले यथा घटादि, किञ्चित्सदेवावरणव्युदासादिनाऽभिव्यज्यते यथा मृदन्तरितमूलकीलादि, एवं प्रयत्नकार्यनानात्वादेष प्रयत्नेन शब्दो व्यज्यते जन्यते वेति संशय इति । संशयापादनप्रकारभेदाच्च संशयसमातः कार्यसमा जातिभिद्यते २४ । ६५-तदेवमुद्भावनविषयविकल्पभेदेन जातीनामानन्येऽप्यसङ्कीर्णोदाहरणविवक्षया चतुर्विशतिर्जातिभेदा एते दर्शिताः । प्रतिसमाधानं तु सर्वजातीनामन्यथानुपपतिलक्षणानुमानलक्षणपरीक्षणमेव । न ह्यविप्लुतलक्षणे हेतावेवंप्रायाः पांशुपाताः प्रभवन्ति । कृतकत्वप्रयत्नानन्तरोयकत्वयोश्च दृढप्रतिबन्धत्वान्नावरणादिकृतं शब्दानुपलम्भनमपि त्वनित्यत्वकृतमेव । जातिप्रयोगे च परेण कृते सम्यगुत्तरमेव वक्तव्यं न प्रतीपं जात्युत्तरैरेव प्रत्यवस्थेयमासमञ्जस्य प्रसङ्गादिति । ६६-छलमपि च सम्यगुत्तरत्वाभावाज्जात्युत्तरमेव । उक्तं ह्येतदुद्भावनप्रकारभेदेनानन्तानि जात्युत्तराणीति । तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातश्छलम् । तत्रिधा वाक्छलं सामान्यच्छल मुपचारच्छलं चेति । तत्र साधारणे शब्दे कहता है-प्रयत्न के दो रूप दिखाई देते हैं । प्रथम यह कि प्रयत्न किसी असत् पदार्थ को उत्पन्न करता है, जैसे घट को। दूसरा रूप यह है कि प्रयत्न के द्वारा आवरण हट जाने से सत् पदार्थ प्रकट हो जाता है, जैसे मिट्टी से दबे हुए मूल कील आदि । इस प्रकार जब प्रयत्न के कार्य नाना हैं तो सशय उत्पन्न होता है कि प्रयत्न के द्वारा शब्द व्यक्त किया जाता है अथवा उत्पन्न किया जाता है ? ___ संशयसमा और कार्यसमा जाति में संशय का आपादन करने में भेद है, अतएव कार्यसमा जाति उससे भिन्न है। ___इस प्रकार (असत् दोष की) उद्भावना के विषय और विकल्प के भेद से जातियाँ अनन्त हैं फिर भी उनके पृथक् उदाहरणों को विवक्षा करके चौवीस भेद यहाँ दिखलाए गए हैं। इन सभी. जातियों का प्रतिसमाधान अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु के लक्षण की परीक्षा करना ही है । अन्यथानुपपत्ति लक्षण से युक्त हेतु का प्रयोग किया जाय तो उस पर इस तरह की धूल नहीं डाली जा सकती। कृतकत्व और प्रयत्नानन्तरीयकत्व में निश्चित अविनाभाव संबंध है, अतएव शब्द की अनुपलब्धि आवरण के कारण नहीं वरन् अनित्यत्व के कारण ही होती है । प्रतिवादी यदि जाति का प्रयोग करे तो वादी को समीचीन उत्त: ही देना चाहिए; असत् उत्तर देकर ही उसका प्रत्यवस्थान नहीं करना चाहिए । जाति प्रयोग के बदले में जाति प्रयोग करने से असमंजस हो जाता है। छलनिरूपण सम्पक रूप न होने से छल भी जात्युत्तर ही है । यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि उद्भावना के प्रकारों में अन्तर होने से जातियाँ अनन्त हैं। किसी वादी के वचन में अर्थ का विकल्प उत्पन्न करके उसके वचन का विघात (खण्डन) करना छल कहलाता है। छल तीन प्रकार के हैं-(१) वाक्छल (२) सामान्य छल और (३) उपचारछल ।

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