Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
नैवम् । असदुत्तरैः परप्रतिक्षेपस्य कर्तुमयुक्तत्वात्; न ह्यन्यायेन जयं यशो धनं वा महात्मानः समीहते । अथ प्रबलप्रतिवादिदर्शनात् तज्जये धर्मध्वंससम्भावनात्, प्रतिभाक्षयेण सम्यगुत्तरस्याप्रतिभासादसदुत्तरैरपि पांशुभिरिवावकिरनेकान्तपराजयाद्वरं सन्देह इति धिया न दोषमावहतीति चेत्; न, अस्यापवादिकस्य जात्युत्तरप्रयोगस्य कथान्तरसमर्थनसामर्थ्याभावात् । वाद एव द्रव्यक्षेत्रकालभावानुसारेण यद्यसदुत्तरं कथंचन प्रयुञ्जीत किमेतावता कथान्तरं प्रसज्येत ? । तस्माज्जल्पवितण्डानिराकरन वाद एवैकः कथाप्रथां लभत इति स्थितम् ||३०||
७२-वादश्च जयपराजयावसानो भवतीति जयपराजययोर्लक्षणमाहस्वपक्षस्य सिद्धिर्जयः ॥३१॥
७३ - वादिनः प्रतिवादिनो वा या स्वपक्षस्य सिद्धिः सा जयः । सा च स्वपक्षसाधनदोषपरिहारेण परपक्षसाधनदोषोद्भावनेन च भवति । स्वपक्षे साधनमब्रुवन्नपि प्रतिवादी वादिसाधनस्य विरुद्धतामुद्भावयन् वादिनं जयति, विरुद्धतोद्भावनेनैव स्वपक्षे 'साधारण जन गतानुगतिक होते हैं --- भेंड़चाल से चलते हैं । वे ऐसे लोगों के बहकाव में आकर कुमार्ग पर न चले जाएँ, इस हेतु से दयालु मुनि-अक्षपाद ऋषि ने छल आदि का उपदेश दिया ''
समाधान - ऐसा न कहो । असत् उत्तरों से परपक्ष का निराकरण करना उचित नहीं है । महात्मा पुरुष अन्याय के द्वारा विजय, यश या धन प्राप्त करने की इच्छा नहीं करते ।
शंका-कहीं प्रतिवादी प्रबल दिखाई दे और उसके विजयी होने से धर्म के ध्वंस की संभावना हो या प्रतिभा मारी जाय और इस कारण सम्यक् उत्तर नहीं सूझ रहा हो तो धूल बिखेरने के समान असत् उत्तरों का ही प्रयोग करना ठीक है । एकान्त पराजय से तो जय-पराजय संबंधी सन्देह रह जाना ही अच्छा है । इस दृष्टिकोण से छल आदि के प्रयोग में कोई दोष नहीं है । समाधान- नहीं। ऐसा जातिप्रयोग अपवादरूप है - कोई सामान्य विधान नहीं । अतएव इसके आधार पर एक पृथक् प्रकार की कथा का समर्थन नहीं किया जा सकता । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कदाचित् वाद में ही असत् उत्तर का प्रयोग कर दिया जाय तो क्या इतने मात्र से ही वह कथा अलग प्रकार की हो जाएगी ? अतएव जल्प और वितण्डा को छोड़ कर एक मात्र वाद ही कथा कहलाने के योग्य है । यह सिद्धान्त प्रमाणित हुआ ||३०||
७२ - जय और पराजय होने पर वाद का अन्त हो जाता है, अतएव जय और पराजय का लक्षण कहते हैं - सूत्रार्थ - अपने पक्ष की सिद्धि हो जाना जय है ॥ ३१ ॥
७३ - वादी अथवा प्रतिवादी का अपना जो पक्ष है, उसकी सिद्धि हो जाना ही उसकी जय है। स्वपक्ष की सिद्धि तब होती है जब अपने पक्ष के साधन में प्रतिवादीद्वारा उद्भावित दोषों का परिहार कर दिया जाय और विरोधी पक्ष के साधन में दोष का उद्भावन किया जाय । हाँ, प्रतिवादी यदि वादी के साधन विरुद्धता दोष का उद्भावन करे तो वह अपने पक्ष की सिद्धि में साधन का प्रयोग किये विना भी वादी पर विजय प्राप्त कर लेता है । परपक्ष में विरु