Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 150
________________ प्रमाणमीमांसा ६७-साधनदूषणाद्यभिधानं च प्रायो वादे भवतीति बादस्य लक्षणमाह- . तत्त्वसंरक्षणार्थं पाश्निकादिसमक्षं साधनदूषणवदनं वादः ॥३०॥ ६८-स्वपक्षसिद्धये वादिनः 'साधनम्' तत्प्रतिषेधाय प्रतिवादिनो 'दूषणम्। प्रतिवादिनोऽपि स्वपक्षसिद्धये 'साधनम्' तत्प्रतिषेधाय वादिनो 'दूषणम् तदेवं वादिनः साधनदूषणे प्रतिवादिनोऽपि साधनदूषणे द्वयोर्वादिप्रतिवादिभ्याम् 'वदनम्' अभिधानम् 'वादः' । कथमित्याह-'प्राश्निकादिसमक्षम्' । प्राश्निकाः सभ्याः "स्वसमयपरसमयज्ञाः कुलजाः पक्षद्वयेप्सिताः क्षमिणः । वादपथेष्वभियुक्तास्तुलासमाः प्राश्निकाः प्रोक्ताः" । इत्येवंलक्षणाः। 'आदि' ग्रहणेन सभापतिवादिप्रतिवादिपरिग्रहः, सेयं चतुरङ्गा कथा एकस्याप्यङ्गस्य वैकल्ये कथात्वानुपपत्तेः । नहि वर्णाश्रमपालनक्षमं न्यायान्यायव्यव: स्थापकं पक्षपातहितत्वेन समदृष्टि सभापति यथोक्तलक्षणांश्च प्राश्निकान् विना वादिप्रतिवादिनौ स्वाभिमतसाधनदूषणसरणिमाराधयितुं क्षमौ । नापि दुःशिक्षितकुतर्कलेशवाचालबालिशजनविप्लावितो गतानुगतिको जनः सन्मार्ग प्रतिपद्यतेति । तस्य फलमाह-'तत्त्वसंरक्षणार्थम् । 'तत्त्व' शब्देन तत्त्वनिश्चयः साधुजनहृदयविपरिवर्ती गृह्यते, तस्य रक्षणं दुर्विदग्धजनजनितविकल्पकल्पनात इति । ६७-साधन और दूषण का प्रयोग प्रायः वाद में ही किया जाता है, अतः वाद के लक्षण का निरूपण करते हैं--सूत्रार्थ-तत्त्व का संरक्षण करने के लिए सभ्यों आदि के समक्ष साधन और दूषण का कथन करना वाद है ॥३०॥ ६८-वादी अपने पक्ष की सिद्धि के लिए साधन का प्रयोग करता है और प्रतिपक्ष का निषेध करने के लिए दूषण का प्रयोग करता है। प्रतिवादी भी इसी प्रकार साधन और दूषण का प्रयोग करता है । यही वाद कहलाता है। किन्तु यह साधन-दूषणप्रयोग सभ्यों आदि के समक्ष होता है । सूत्र में प्रयुक्त 'प्राश्निक, शब्द का अर्थ'सभ्य है । सभ्य इस प्रकार होने चाहिए स्व-पर सिद्धान्त के ज्ञाता, कुलीन, दोनों पक्षों के द्वारा स्वीकृत, क्षमावान, वाद पक्ष में निपुण और तला के समान निष्पक्ष न्याय करने वाले प्राश्निक कहे गए हैं। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से सभापति वादी और प्रतिवादी का ग्रहण होता है । जहाँ यह चारों होते हैं वह चतुरंग कथा कहलाती है । इनमें से एक भी अंग की कमी होने पर कथा (वाद) नहीं हो सकती। वर्णाश्रम के पालन में समर्थ, न्याय-अन्याय की व्यवस्था करने वाले और निष्पक्ष होने से समदृष्टि सभापति के विना और पूर्वोक्त लक्षणों से सम्पन्न प्राश्निकों के विमा बादी और प्रतिवादी स्वाभिमत साधन-दूषण की प्रणाली का अबलम्बन नहीं कर सकते । और न दुःशिक्षित, थोडा सा कुतर्क सीख कर वाचाल बने हुए मढ लोगों द्वारा बरगलाए, लकीर के फकीर लोग सन्मार्ग को अंगीकार कर सकते हैं। वाद का फल है तत्व का संरक्षण करना। यही 'तत्व' शब्द से उस तत्त्वनिश्चय को समझना चाहिए जो भद्र पुरुषों के चित्त में अन्यथा भासित

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