Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 67
________________ ६० प्रमाणमीमांसा तत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत, न वा?। नो चेत् स कि पूर्ववोंदास्ते । उपक्रियेत चेत् स तहिं तैरुपकारो भिन्नोऽभिन्नो वा क्रियत इति निर्वचनीयम् । अभेदे स एव क्रियते इति लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता । भेदे स कथं तस्योपकारः?,किं न सानिध्यादेरपि?। तत्सम्बन्धात्तस्यायमिति चेत् ; उपकार्योपकारयोः कः सम्बन्धः? । न संयोगः; द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । नापि समवायस्तस्य प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वान्न नियतसम्बन्धिसम्बन्धत्वं युक्तम्, तत्त्वे वा तत्कृत उपकारोऽस्याभ्युपगन्तव्यः, तथा च सत्युपकारस्य भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकास्स्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि समवायस्य विशेषणविशेष्य भावो हेतुरिति चेत्; उपकार्योपकारकभावाभावे तस्यापि प्रतिनियमहेतुत्वाभावात् । उपकारे तु पुनर्भेदाभेदविकल्पद्वारेण तदेवावर्तते । तन्नकान्तनित्यो भावःक्रमेणार्थक्रियां कुरुते। सहकारी कारणों से युक्त होकर अर्थक्रिया करता है । समाधान-ऐसा है तो सहकारी कारण नित्य पदार्थ में कुछ विशिष्टता (उपकार) उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि नहीं करते अर्थात् सहकारी कारणों के मिलने पर भी नित्य पदार्थ ज्यों का त्यों हो रहता है तो सहकारियों के मिलने पर भी पूर्ववत् उदासीन क्यों नहीं रहता ? यदि उपकार करते हैं अर्थात् विशिष्टता उत्पन्न करते हैं तो वह उपकार नित्य पदार्थ का उत्पादन ही कहलाया । (नित्यता की क्षति हो गई) इस प्रकार लाभ की इच्छा करने वाले की मूल पूंजी ही नष्ट हो गई ।) यदि सहकारिकृत उपकार नित्य पदार्थ से भिन्न होता है तो वह उसका ही क्यों कहलाएगा? सह्य या विन्ध्य पर्वत का क्यों नहीं कहलाए? शंका-नित्य पदार्थ के साथ सम्बन्ध होने के कारण वह उपकार उसी का कहलाता है,अन्य का नहीं । समाधान-तो उपकार्य (नित्य पदार्थ) और उपकार में कौन-सा सम्बन्ध है ? उसे संयोग संबंध कह नहीं सकते,क्योंकि संयोग दो द्रव्यों में ही होता है (यहाँ पदार्थ द्रव्य है किन्तु उपकार द्रव्य नहीं-क्रिया है।) कदाचित् समवाय सम्बन्ध कहो तो वह एक और सर्वव्यापी होने से सर्वत्र तुल्य है--किसी से निकट और किसी से दूर नहीं है। ऐसी स्थिति में अमुक के साथ ही वह संबंध हो, दूसरे के साथ नहीं, ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती । यदि यह व्यवस्था मान ली जाय तो नियत सम्बन्धियों द्वारा कृत उपकार समवाय का मानना चाहिए । ऐसा स्थिति में उपकार के भेद और अभेद की वह कल्पना ज्यों की त्यों कायम रहती है। उपकार का समवाय से अभेद माना जाय तो उपकार को उत्पत्ति का अभिप्राय समवाय की उत्पत्ति होगा। यदि भेद स्वीकार किया जाय तो पुनः वही बाधा खडी होगी कि वह उपकार समवाय का ही कैसे माना जाय ? किसी दूसरे का क्यों न माना जाय ? समवाय क नियत सबंध-संबंधत्व में विशेषणविशेष्यमाव कारण है , ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उपकार्य-उपकारकभाव के अभाव में वह भी नियतता का कारण नहीं हो सकता, अगर पुनः वही प्रश्न उपस्थित होता है कि वह उपकार भिन्न है या अभिन्न है ? इस प्रकार अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है । अतएव यह निश्चित

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