Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा पयोम्बभेदी हंसः स्यात्षट्पादभ्रमरः स्मृतः । सप्तपर्णस्तु विद्वद्भिविज्ञेयो विषमच्छदः ॥ पञ्चवर्णं भवेद्रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी ।
युवतिश्चैकश्रृङ्गोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः ॥" इत्येवमादिशब्दश्रवणात्तथाविधानेव चैत्रहंसादीनवलोक्य तथा सत्यापयति यदा, तदा तदपि संकलनाज्ञानमुक्तम्, दर्शनस्मरणसम्भवत्वाविशेषात् । यथा वा औदीच्येन क्रमेलकं निन्दतोक्तम् ‘धिक्करभमतिदीर्घवक्रग्रीवं प्रलम्बोष्ठं कठोरतीक्ष्णकण्टकाशिनं कुत्सितावयवसन्निवेशमपशदं पशूनाम्'इति । तदुपश्रुत्य दाक्षिणात्य उत्तरापथं गतस्तादृशं वस्तूपलभ्य 'नूनमयमर्थोऽस्य करभशब्दस्य' इति (यदवैति) तदपि दर्शनस्मरणका रणकत्वात् सङ्कलनाज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् ।
११-येषां तु सादृश्यविषयमुपमानाख्यं प्रमाणान्तरं तेषां वैलक्षण्यादिविषयं प्रमाणान्तरमनुषज्येत । यदाहुः
(ख) हंस दूध-पानी को अलग कर देता है। (ग) भ्रमर छह पैरों वाला होता है। (घ) विषमच्छेद सप्तपर्ण (सात पत्तों वाला) कहलाता है । (ङ)पाँच वर्णों वाला रत्न मेचक कहलाता है । (ज) युवति पृथुस्तनी होती है। (छ) गेंडा एक सिंग वाला होता है ।
इस प्रकार के वाक्यों को सुनने के अनन्तर कोई मनुष्य वैसे ही चैत्र या हंस आदि को देख कर जब उन वाक्यों की सचाई का अनुभव करता है, अर्थात् ऐसा जानता है कि यही वह चैत्र,हंस,भ्रमर आदि हैं, तो यह भी संकलन ज्ञान है, क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान दर्शन और स्मरण से उत्पन्न होते हैं । इन ज्ञानों में पूर्वश्रुत वाक्य का स्मरण तथा उस वस्तु का प्रत्यक्ष वर्शन निमित्त होता है।
किसी उत्तर प्रदेशीय व्यक्ति ने ऊँट की निन्दा करते हुए कहा-'धिक्कार है ऐसे ऊंट को जिसकी गर्दन खूब लम्बी और टेढी मेढी होती है, ओठ लम्बे होते हैं, जो कठोर एवं तीखे कांटों का भक्षण करता है, बेहू दे अवयवों वाला और पशुओं में निकृष्ट होता है।' यह सुन कर कोई दाक्षिणात्य उत्तरप्रदेश में गया। वहाँ इस प्रकार के पश को देख कर उसने नाना -ऊँट शब्द का वाच्य-अर्थ यह है ।'यह ज्ञान भी दर्शन और स्मरणहेतुक होने से संकलनज्ञान-प्रत्यभिज्ञान है ।
११-जिन नैयायिकों के मत में सदृशता को जानने वाला उपमाननामक पृथक् प्रमाण माना गया है, उन्हें विलक्षणता आदि को जानने वाला दूसरा कोई प्रमाण मानना पडेगा । कहा भी है