Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
View full book text
________________
प्रमाणमीमांसा श्च धूमधूमध्वजयोर्यथासङ्ख्यं यः 'सहक्रमभावनियमः'-सहभाविनोः सहभावनियमः क्रमभाविनोः क्रमभावनियमः, साध्यसाधनयोरिति प्रकरणाल्लभ्यते सः अविनाभावः ॥१०॥
___३७-अथैवंविधोऽविनाभावो निश्चितः साध्यप्रतिपत्त्यङ्गमित्युक्तम् । तनिश्च'यश्च कुतः प्रमाणात्?। न तावत् प्रत्यक्षात्, तस्यैन्द्रियकस्य सन्निहितविषयविनिय' मितव्यापारत्वात् । मनस्तु यद्यपि सर्वविषयं तथापीन्द्रियगृहीतार्थगोचरत्वेनैव तस्य प्रवृत्तिः । अन्यथान्ध-बधिराद्यभावप्रसङ्गः। सर्वविषयता तु सकलेन्द्रियगोचरार्थविषयत्वेनैवोच्यते,न स्वातन्त्र्येण । योगिप्रत्यक्षेण त्वविनाभावग्रहणेऽनुमेयार्थप्रतिपत्तिरेव ततोऽस्तु, कि तपस्विनाऽनुमानेन?। अनुमानात्त्वविनाभावनिश्चयेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्ग उक्त एव । न च प्रमाणान्तरमेवंविधविषयग्रहणप्रवणमस्तीत्याह
ऊहात् तन्निश्चयः ॥११॥ ३८-'ऊहात् तर्कादुक्तलक्षणात्तस्याविनाभावस्य 'निश्चयः ॥११॥ जैसे पूर्वचर-उत्तरचर तथा धूम और अग्नि जैसे कार्य-कारण क्रमभावी कहलाते हैं। इनमें से सहभावी पदार्थों का सहभावनियम और क्रमभावी पदार्थों का क्रमभावनियम अविनाभाव कहलाता है । प्रकरण से साध्य और साधन का सह-क्रममावनियम समझना चाहिए ॥१०॥
३७-प्रश्न इस प्रकार का अविनाभाव जब निश्चित हो तो ही साध्य के ज्ञान का कारण होता है , ऐसा कहा गया है। अब प्रश्न यह है कि अविना माव का निश्चय किस प्रमाण से होता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उसका निश्चायक नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियज प्रत्यक्ष सन्निहित विषय तक ही सीमित है । मन यद्यपि सर्व पदार्थों को विषय करता है तथापि इन्द्रियों द्वारा गृहीत पदार्थों में ही उसकी प्रवृत्ति होती है। अगर मन इन्द्रिय-अगृहीत पदार्थों को भी जानता तो कोई अन्धा या बहिरा आदि न होता-मनसे ही रूप एवं शब्द का ज्ञान हो जाता। फिर भी मन को जो सर्वविषयक कहा है, उसका अभिप्राय यही है कि वह सभी इन्द्रियों के विषय को जान सकता है; यह अभिप्राय नहीं है कि वह स्वतन्त्र-इन्द्रियनिरपेक्ष रूप से भी जानता है । अगर योगिप्रत्यक्ष से अविनाभाव का ग्रहण माना जाय तो उससे तो अनुमेय पदार्थ ही साक्षात् जाना जा सकता है। वहाँ बेचारे अनुमान की क्या आवश्यकता है? ____ अनुमान प्रमाण से अविनाभाव का निश्चय होना माना जाय तो अनवस्था और इतरेतराश्रय दोषों का प्रसंग होता है । यह पहले ही (सूत्र ५ में) कहा जा चुका है। प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण नहीं है जो इस प्रकार के विषय को ग्रहण करने में समर्थ हो सके । इस प्रश्न का उत्तर आगे के सूत्र में दिया गया है।
सूत्रार्थ-ऊह अर्थात् तर्क नामक प्रमाण से अविनामाव का निश्चय होता है।।११॥
३८-ऊह प्रमाण का लक्षण पहले ही बतलाया जा चुका है। उसी से अविनाभाव-व्याप्ति का निश्चय होता है ॥११॥