Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 125
________________ ११८ प्रमाणमीमांसा २०- एतावान्' एव यदुत तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्या वा युक्तं साधनं प्रतिज्ञा 'थ । 'प्रेक्षाय' प्रेक्षावते प्रतिपाद्याय तदवबोधनार्थः ' प्रयोगः' न त्वधिको यथाहुः साङ्ख्यादयः, नापि हीनो यथाहुः सौगताः - "विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल:" (प्रमाणवा० १,२८ ) इति ॥ ९ ॥ २१- ननु परार्थप्रवृत्तैः कारुणिकैर्यथाकथञ्चित् परे प्रतिबोधयितव्या नासद्व्यवस्थोपन्यासैरमीषां प्रतिभाभङ्गः करणीयः, तत्किमुच्यते एतावान् प्रेक्षप्रयोगः ?, इत्याशङ्कय द्वितीयमपि प्रयोगक्रममुपदर्शयति । बोध्यानुरोधात्प्रतिज्ञाहेतूदाहरणापनयनिगमनानि पञ्चापि ॥१०॥ २२ - 'बोध्यः' शिष्यस्तस्य 'अनुरोध:' तदवबोधनप्रतिज्ञापारतन्त्र्यं तस्मात् प्रतिज्ञादीनि पञ्चापि प्रयोक्तव्यानि । एतानि चावयवसञ्ज्ञया प्रोच्यन्ते । यदक्षपाद:"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः " (यसू०, १, १३२ ) इति । 'अपि, शब्दात् प्रतिज्ञादीनां शुद्धयश्च पञ्च बोध्यानुरोधात् प्रयोक्तव्याः । यच्छ्रीभद्रबाहुस्वामिपू ज्यपादाः - " कत्थई पञ्चावयवं दसहा वा सव्वहाण पडिकुट्ठ ति" ( दश० नि०५१ ) | २०- तथोपपत्ति अथवा अनुपपत्ति से युक्त साधन का तथा प्रतिज्ञा का प्रयोग करना, इतना ही बुद्धिमान् प्रतिपाद्य को समझाने के लिए अनुमान का प्रयोग उचित है । सांख्य आदि के कथनानुसार न तो इससे अधिक प्रयोग करना चाहिए और न बौद्धों के कथनानुसार कम ही प्रयोग करना चाहिए। जैसा कि उनका कथन है- 'विद्वानों के लिए अकेले हेतु का ही प्रयोग करना चाहिए ॥ ९ ॥ २१- परोपकार में प्रवृत्त करुणाशील पुरुषों को जिस प्रकार संभव हो, दूसरों को प्रतिबोध देना चाहिए, असत् व्यवस्था का उपन्यास करके उनकी प्रतीति को भंग नहीं करना चाहिए । तो फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं कि बुद्धिमानों के प्रति प्रतिज्ञा और हेतु का ही प्रयोग करना चाहिए? इस प्रकार की आशंका करके दूसरा प्रयोगक्रम बतलाते हैं सूत्रार्थ - शिष्य के अनुरोध से प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण, उपनय और निगमन, इन पाँचों अवयवों का प्रयोग करना चाहिए ॥१०॥ २२- बोध्य अर्थात् शिष्य । अनुरोध अर्थात् उसको समझाने की प्रतिज्ञा की परतंत्रता । तात्पर्य यह है कि प्रतिपादक प्रतिपाद्य को वस्तुस्वरूप समझा देने के लिए कृतसंकल्प होता है, एव यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो प्रतिज्ञा आदि पाँचों अवयवों का प्रयोग भी करना चाहिए। प्रतिज्ञा आदि पाँचों 'अवयव' कहलाते हैं । अक्षपाद ने भी इन्हें अवयव ही कहा है. यथा- 'प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः' | सूत्र में प्रयुक्त 'अपि' शब्द से यह सूचित किया गया है कि यदि शिष्य को समझाने के लिए आवश्यक हो तो प्रतिज्ञा आदि अवयवों की पाँच शुद्धियों का भी प्रयोग करना चाहिए। पूज्यपाद श्रीभद्रबाहु स्वामी ने कहा है-कहीं-कहीं पाँच अवयववाला अथवा दस अवयव वाला भी परार्थानुमान होता है । उसका सर्वथा निषेध नहीं किया है ॥१०॥

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