Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा तनिषेधादबाधितविषयत्वम् । प्रतिपक्षहेतुबाधितत्वं सत्प्रतिपक्षत्वं यथाऽनित्यः शब्दोनित्यधर्मानुपलब्धः । अत्र प्रतिपक्षहेतुः--नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरिति । तन्निषेधादसत्प्रतिपक्षत्वम् । तत्र बाधितविषयस्य सत्प्रतिपक्षस्य चाविनाभावाभावादविनाभावेनैव रूपद्वयमपि सङ्ग्रहीतम् । यदाह-"बाधाविनाभावयोविरोधात्"[हेतु०परि० ४] इति । अपि च, स्वलक्षणलक्षितपक्षविषयत्वाभावात् तद्दोषेणैव दोषद्वयमिदं चरिता. थं किं पुनर्वचनेन?। तत् स्थितमेतत् साध्याविनाभावैकलक्षणादिति ॥९॥
३५-तत्राविनाभावं लक्षयति
सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥१०॥
३६-'सहभाविनोः' एकसामग्यधीनयोः फलिदिगतयो रूपरसयोः व्याप्यव्यापकयोश्च शिशपात्ववृक्षत्वयोः, 'क्रमभाविनोः' कृत्तिकोदयशकटोदययोः, कार्यकारणयोयहाँ साध्य ( सुरा का पेयत्व )आगम से बाधित है । अतएव द्रवत्व हेतु आगमबाधित विषय है है) जिस हेतु में यह दोनों न हों वह अबाधित विषय कहलाता है। जो हेतु अपने विरोधि दूसरे हेतु से बाधित हो वह सत्प्रतिपक्ष कहलाता है । यथा-'शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें नित्यता की उपलब्धि नहीं होती।' इसका विरोधी हेतु यह है-'शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें अनित्यता की उपलब्धि नहीं होती' इस हेतु से प्रथम हेतु बाधित हो जाने के कारण सत्प्रतिपक्ष कहलाता है । जिस हेतु में यह दोष न हो वह असत्प्रतिपक्ष है। किन्तु जो हेतु बाधितविषय या सत्प्रतिपक्ष होता है. उसमें आविनाभाव हो ही नहीं सकता । अतएव आविनाभाव को हेतु का लक्षण स्वीकार करने से ही इन दोनों लक्षणों का ग्रहण हो जाता है। कहा भी है-'बाधा और अविनाभाव का विरोध है।' अर्थात जहाँ किसी प्रकार का हेत दोष है, वहाँ अविनाभाव नहीं हो सकता और जहाँ अविनामाव है वहाँ कोई मोहनदोष नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्तहमने पक्ष का जो लक्षण १कहा है वह यहाँ घटित नहीं होता। अतएव पक्ष के दोषों में ही यह दोनों दोष अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन्हें अलग कहने की क्या आवश्यकता है? तात्पर्य यह है कि साध्य का प्रत्यक्षादि से बाधित होना पक्ष का दोष है । पक्ष के दोष से अनुमान दूषित हो जाता है । अतएव इन्हें अलग हेतु दोष मानना पुनरुक्ति मात्र है। इस प्रकार साध्य के साथ अविनाभाव होना ही हेतु का एक मात्र लक्षण है । ऐसे हेतु से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है ॥९॥
३५-अविनाभाव का लक्षण
सूत्रार्थ-सहभादियों का सहभावनियम और क्रमभावियों का क्रममावनियम अविनाभाव कहलाता है ।।१०॥
____३६- एक ही सामग्री के अधीन, फलादि में रहे हुए रूप और रस अर्थात् सहचर तया व्याप्य और व्यापक संबंधवाले शिशपात्व और वृक्षत्व सहभावी हैं। कृत्तिकं दय और शकटोदय
१-देखिए इसी आह्निक का सूत्र १३-१४ वाँ।