Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
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व्याप्ति गमयेत् ? । व्यक्त्यन्तरेषु व्याप्त्यर्थं दृष्टान्तान्तरं मृग्यम् । तस्यापि व्यक्तिरूपत्वेन साकल्येन व्याप्तेरवधारयितुमशक्यत्वात्परापरद्दृष्टान्तापेक्षायामनवस्था स्यात् । नापि तृतीयः, गृहीतसम्बन्धस्य साधनदर्शनादेव व्याप्तिस्मृतेः । अगृहीतसम्बन्धस्य दृष्टान्तेऽप्यस्मरणात् उपलब्धिपूर्वकत्वात् स्मरणस्येति ॥१९॥
७३ दृष्टान्तस्य लक्षणमाह
स व्याप्तिदर्शनभूमिः ॥२०॥
७४ - स इति हृष्टान्तो लक्ष्यं 'व्याप्तिः' लक्षितरूपा, 'दर्शनम् परस्मै प्रतिपादनं तस्य 'भूमिः, आश्रय इति लक्षणम् ।
७५ - ननु यदि दृष्टान्तोऽनुमानाङ्गं न भवति तर्हि किमर्थं लक्ष्यते ? उच्यतेपरार्थानुमाने बोध्यानुरोधादापवादिकस्योदाहरणस्यानुज्ञास्यमानत्वात् । तस्य च दृष्टान्ताभिधानरूपत्वादुपपन्नं दृष्टान्तस्य लक्षणम् । प्रमातुरपि कस्यचित् दृष्टान्तदृष्टबहिर्व्याप्तिबलेनान्तर्याप्तिप्रतिपत्तिर्भवतीति स्वार्थानुमानपर्वण्यपि दृष्टान्तलक्षणं नानु
पपन्नम् ॥२०॥
उसमें धूम और अग्नि है, यह ठीक है किन्तु इपसे यह तो निर्णय नहीं हो सकता कि तीन काल और तीन लोक में जहाँ कहीं धूम होता है वहाँ अग्नि अवश्य होती है ! जब व्यक्तिरूप हृष्टान्त से व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता तो दूसरी व्यक्तियों में उसका ग्रहण करने के लिए अन्य दृष्टान्त खोजना पड़ेगा । मगर अन्य दृष्टान्त भी व्यक्तिरूप ही होगा और वह भी परिपूर्ण रूप से व्याप्ति का निश्चायक नहीं हो सकेगा, अतएव अन्यान्य दृष्टान्तों की अपेक्षा बनी ही रहेगी । ऐसी स्थिति में अनवस्था दोष अनिवार्य है । दृष्टान्त अविनाभाव के स्मरण में उपयोगी होता है, यह तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिसने अविनाभाव संबंध को समझ रक्खा है, उसे साधन को देखने से ही व्याप्ति का स्मरण हो जाता है। इसके विपरीत जिसने अविनाभाव का ग्रहण नहीं किया है, उसे हृष्टान्त का प्रयोग करने पर भी अविनाभाव का स्मरण नहीं हो सकता। क्योंकि स्मरण तभी हो सकता है जब पहले ग्रहण हो चुका हो ॥ १९ ॥
७३–दृष्टान्त का लक्षण-सूत्रार्थ दृष्टान्त व्याप्ति को दिखलाने का स्थान होता है | २०॥ दृष्टान्त वह स्थान है जहाँ दूसरे को व्याप्ति दिखलाई जाती है ।
७५ -- प्रश्न- यदि हृष्टान्त अनुमान का अंग नहीं है तो उसके लक्षण का निरूपण क्यों करते हैं ? उत्तर - परार्थानुमान में शिष्य के अनुरोध से उदाहरण को अपवाद रूप में स्वीकार किया है और दृष्टान्त का कथन ही उदाहरण कहलाता है, इस द्दष्टान्त का लक्षण कहना उचित ही है। इसके अतिरिक्त किसी किसी प्रमाता को भी देखी हुई बहिर्व्याप्ति की सहायता से. अन्तर्व्याप्ति का बोध होता है, इस कारण स्वार्थानुमान के प्रसंग में भी दृष्टान्त का लक्षण कथन अनुचित नहीं है ॥२०॥