Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा ६७-उभयसिद्धो धर्मों यथा अनित्यः शब्द इति । नहि प्रत्यक्षेणाग्दिर्शिभिरनियतदिग्देशकालावच्छिन्नाः सर्वशब्दाः शक्या निश्चेतुमिति शब्दस्य प्रमाणबुद्ध्युभयसि. द्धता, तेनानित्यत्वादिधर्मः प्रसाध्यत इति ॥१७॥
६८-ननु दृष्टान्तोऽप्यनुमानाङ्गतया प्रतीतः । तत् कथं साध्यसाधने एवानुमानाङ्गमुक्ते न दृष्टान्तः?; इत्याह
न दृष्टान्तोऽनुमानाङ्गम् ॥१८॥ ६९-'दृष्टान्तः, वक्ष्यमाणलक्षणो नानुमानस्य 'अङ्गम्, कारणम् ॥१८॥ ७०-कुत इत्याह
___ साधनमात्रात् तसिद्धेः ॥१९॥ ७१-दृष्टान्तरहितात्साध्यान्यथानुपपत्तिलक्षणात् 'साधनात्' अनुमानस्य साध्यप्रतिपत्तिलक्षणस्य भावान्न दृष्टान्तोऽनुमानाङ्गमिति ।
७२-स हि साध्यप्रतिपत्तौ वा अविनाभावग्रहणे वा, व्याप्तिस्मरणे वोपयुज्येतो। न तावत् प्रथमः पक्षः, यथोक्तादेव हेतोः साध्यप्रतिपत्तरुपपत्तेः । नापि द्वितीयः, विपक्षे बाधकादेवाविनाभावग्रहणात। किंच, व्यक्तिरूपो दृष्टान्तः। स कथं साकल्यन
६७- शब्द नित्य है' यहाँ शब्द'उभयसिद्ध धर्मो है । अल्पज्ञ जन अनियत दिशाओं, देशों और कालों के समस्त शब्दों का प्रत्यक्ष से निश्चय नहीं कर सकते (केवल वर्तमान और इन्द्रिय सम्बद्ध शब्दों का ही उन्हें प्रत्यक्ष होता है ) अतएव वह बद्धिसिद्ध भी है और प्रमाणसिद्ध भी है। उभयसिद्ध धर्मी में अनित्यत्व आदि धर्म सिद्ध किये जाते हैं ।
__६८-शंका-दृष्टान्त भी अनुमान का अंग है, यह बात प्रसिद्ध हैं । फिर आपने साध्य और साधन को ही अनुमान का अंग क्यों कहा है? दृष्टान्त को क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर कहते हैं
सूत्रार्थ-दृष्टान्त अनुमान का अंग नहीं है ॥१८॥ ६९-दृष्टान्त जिसका स्वरूप आगे कहा जाएगा,अनुमान का अंग अर्थात् कारण नहीं है ।१८। ७०-क्यों नहीं है ?-सूत्रार्थ-अकेले साधन से ही अनुमान की सिद्धि हो जाती है ॥१९॥
७१-क्योंकि दृष्टान्त से रहित, साध्य के साथ अन्यथानुपपन्न साधन से ही अनुमान (साध्य के ज्ञान) की सिद्धि हो जाती है । अतएव दृष्टान्त को उसका अंग मानने को आवश्यकता नहीं है।
७२-दृष्टान्त की उपयोगिता क्या है? वह साध्य की प्रतिपत्ति में उपयोगी होता है या अविनाभाव का निश्चय करने में अथवा व्याप्ति के स्मरण में ? साध्य की प्रतिपत्ति के लिए तो: उसको आवश्यकता है नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त-लक्षणवाले-हेतु से ही साध्य का ज्ञान हो जाता है।
दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं, क्योंकि विपक्ष में बाधक प्रमाण से अविनाभाव का निश्चय होता है । इसके अतिरिक्त दृष्टान्त व्यक्तिरूप होता है,वह परिपूर्ण रूप से व्याप्ति का निदर्शक कैसे हो सकता है? आशय यह है-'जहां जहाँ धूम होता है वहां वहाँ अग्नि होती है, जैसे रसोईगृह ।' यहाँ रसोईगृह दृष्टान्त है । वह व्यक्तिरूप है अर्थात् अपने आप तक ही सीमित है ।