Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ प्रमाणमीमांसा १०३ मुपस्थापयन्ति तत एव तदभावे स्वयं न भवन्ति, तेषामनुपलब्धिरप्यभावसाधनीत्याह । तत्र स्वभावानुपलब्धिर्यथा नात्र घटः, द्रष्टुं योग्यस्यानुपलब्धः। कारणानुपलब्धिर्यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावात् । कार्यानुपलब्धिर्यथा नात्राप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूमकारणानि सन्ति धूमाभावात् । व्यापकानुपलब्धिर्यथा नात्र शिशपा वृक्षाभावात् । ५२. विरोधि तु प्रतिषेध्यस्य तत्कार्यकारणव्यापकानां च विरुद्धं विरुद्धकार्य च । यथा न शीतस्पर्शः, नाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि, न रोमहर्षविशेषाः, न तुषारस्पर्शः, अन्ने—माद्वेति प्रयोगनानात्वमिति ॥१२॥ ५३- साधनं लक्षयित्वा विभज्य च साध्यस्य लक्षणमाह सिषाधयिषितमसिद्धमबाध्यं साध्यं पक्षः १३॥ ५४-साधयितुमिष्टं सिषाधयिषितम् । अनेन साधयितुमनिष्टस्य साध्यत्वव्यवच्छेदः, यथा वैशेषिकस्य नित्यः शब्द इति शास्त्रोक्तत्वाद्वैशेषिकेणाभ्युपगतस्याप्याकाशगुणत्वादेर्न साध्यत्वम् तदा साधयितुमनिष्टत्वात् । इष्टः पुनरनुक्तोऽपि पक्षो भवति,यथा परार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वाच्छयनाशनाद्यङ्गवदित्यत्र परार्था इत्यात्मार्थाः। हैं वह उसके अभाव में नहीं होता है,अतएव उनकी अनुपलब्ध भी अमाव को सिद्ध करती है,जैसे स्वभावानुपलब्धि-यहाँ धूम नहीं है क्योंकि अग्नि का अभाव है। कार्यानुपलब्धि-यहाँ अप्रतिबद्ध सामर्थ्य वाले धूम के कारण नहीं हैं.क्योंकि धूम नहीं है। व्यापकानुपलब्धि-यहाँ शिशपा नहीं है क्योंकि वृक्ष का अभाव है । ५२-विरोधी हेतु प्रतिषेध्य (निषेध रूप साध्य) या प्रतिषेध्य के कार्य, कारण और व्यापक से विरुद्ध होता है अथवा विरुद्ध का कार्य होता है । यथा-(क) यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि अग्नि है (ख) यहाँ अप्रतिबद्ध सामर्थ्य वाले शीत के कारण नहीं हैं, क्योंकि अग्नि है (ग) यहाँ रोमहर्षविशेष नहीं है क्योंकि अग्नि है (घ) यहाँ तुषारस्पर्श नहीं है, क्योंकि अग्नि है । (यह क्रमशः विरुद्ध, विरुद्ध कार्य विरुद्ध कारण और विरुद्ध व्यापक के उदाहरण हैं।) यहाँ प्रतिषेध्य से विरुद्ध अग्नि का कार्यरूप हेतु'धूम'समझना चाहिए। जैसे-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है,क्योंकि धूम है, इत्यादि । (शीतस्पर्श से विरुद्ध अग्नि है और अग्नि का कार्य धूम है,अतः धूम प्रतिषेध्य शीतस्पर्श से विरुद्ध अग्नि का कार्य हुआ।) इस प्रकार नाना तरह से हेतुओं का प्रयोग होता है ॥१२॥ ५३-साध्य का लक्षण-सूत्रार्थ--वादी जिसे सिद्ध करना चाहता हो,जो प्रतिवादी को सिद्ध न हो और प्रमाण से बाधित न हो, वह साध्य कहलाता है । साध्य को पक्ष भी कहते हैं ॥१३॥ ५४--जिसे सिद्ध करना इष्ट हो वह 'सिसाधयिषित' कहलाता है । इस विशेषण से यह फलित हुआ कि जिसे वादी सिद्ध न करना चाहे वह साध्य नहीं होता है । वैशेषिक के मत के शास्त्र में 'शब्द नित्य है' ऐसा कहा गया है। उन्होंने उसे आकाश का गुण भी माना है,फिर भी जब इसे वे सिद्ध नहीं करना चाहते तब वह साध्य नहीं होता । इसके विपरीत जो सिद्ध करने के लिए इष्ट है, वह शब्द से न कहने पर भी साध्य होता है । जैसे-चक्षु आदि परार्थ हैं, क्योंकि बे संघात हैं, शयन एवं अशन आदि के अंगों के समान । यहाँ परार्थ' का अभिप्राय है-आत्मार्थ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180