Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा रति भवान्?। ननु कृतकत्वानित्यत्वयोस्तादात्म्ये साधनवत् साध्यस्य सिद्धत्वम् साध्यवच्च साधनस्य साध्यत्वं प्रसजति । सत्यमेतत्, कि तु मोहनिवर्तनार्थः प्रयोगः। यदाह
"सादेरपि न सान्तत्वं व्यामोहाद्योऽधिगच्छति ।
साध्यसाधनतैकस्य तं प्रति स्यान्न दोषभाक् ॥" ४२-'कारणं' यथा बाष्पभावेन मशकवतिरूपतया वा सन्दिह्यमाने धूमऽग्निः, विशिष्टमेघोन्नतिर्वा वष्टौ । कथमयमाबालगोपालाविपालाङ्गनादिप्रसिद्धोऽपि नोपलब्धः सूक्ष्मदशिनापि न्यायवादिना? । कारणविशेषदर्शनाद्धि सर्वः कार्यार्थी प्रवर्तते । स तु विशेषो ज्ञातव्यो योऽव्यभिचारी । कारणत्वनिश्चयादेव प्रवृत्तिरिति चेत्, अस्त्वसौ लिङ्गविशेषनिश्चयः प्रत्यक्षकृतः, फले तु भाविनि नानुमानादन्यन्निबन्धनमुत्पश्यामः । क्वचिद् व्यभिचारात् सर्वस्य हेतोरहेतुत्वे कार्यस्यापि तथा प्रसङ्गः । बाष्पादेरकार्यत्वान्नेति चेत् ; अत्रापि यत् यतो न भवति न तत् तस्य कारणमित्यदोषः।
शंका-ननु कृतकत्वाच्छब्दस्यानित्यत्वे इत्यादि । शब्द कृतक होने से यदि अनित्य सिद्ध किया जाय तो पर्याय के समान द्रव्य में भी अनित्यता प्राप्त होगी। समाधान-नहीं,क्योंकि पर्यायों की अनित्यता ही साध्य है। शब्द द्वारा न कहने पर भी जो इष्ट होता है, वही साध्य होता है, यह बात आप कैसे भूल जाते हैं ? शंका--कृतकत्व और अनित्यत्व में यदि तादात्म्य संबंध है ( और कृतकत्व साधन तथा अनित्यत्व साध्य है ) तो साधन के समान साध्य भी सिद्ध होना चाहिए और साध्य के समान साधन भी असिद्ध होना चाहिए । समाधान-ठीक है; तथापि भ्रम को दूर करने के लिए ऐसा अनुमानप्रयोग किया जाता है । कहा भी है
जो व्यामोह के कारण सादि अर्थात् कृतक वस्तु की भी अनित्यता स्वीकार नहीं करता, उसके लिए एक ही धर्म को साध्य और साधन बना लेना भी दोषास्पद नहीं है।'
४२-(२)-कारण हेतु-कहीं-कहीं कारण भी हेतु होता है । जैसे किसी को धूम में वाष्प या मशकों को वातो का संदेह हो रहा हो तो वहाँ धूम का निश्चय करने में अग्नि हेतु होता है।
थवा वृष्टि के अनुमान में विशिष्ट मेघों की उन्नति हेतु होती है। विशिष्ट मेघों को चढ़ा देख कर वर्षा का अनुमान तो बालक, गोपालक,गडरिया और स्त्रियों में भी प्रसिद्ध है। फिर सूक्ष्मदर्शी न्यायवादी (बौद्ध-धर्मकीति) इसे क्यों नहीं समझ पाते ? कारणविशेष अर्थात् अविकल कारण को देख कर सभी कार्यार्थी प्रवत्ति करते हैं। हाँ, 'विशेष' वही समझना चाहिए जो अव्यभिचारी हो अर्थात् जिसकी विद्यमानता में कार्य की उत्पत्ति अवश्य ही हो । शंका--कारणता के निश्चय से हो प्रवृत्ति होती है। समाधान--कारणविशेष का निश्चय प्रत्यक्ष से भले ही हो जाय, किन्तु भविष्य म होने वाले फल (कार्य) का निश्चय तो अनुमान के अतिरिक्त किसी से हो नहीं सकता। कहींकहीं कारण के होने पर भी कार्य नहीं होता,ऐसे व्यभिचार को देख कर यदि सभी करणों को अहेतु माना जाय तो कार्य भी अहेतु हो जायेगा • अगर कहा जाय कि कार्य कारण से कभी व्यभिचरित नहीं होता, और धूम के रूप में समझ लिये जाने वाले वाष्प आदि जो व्यभिचारी देखे जाते हैं, वे वास्तव में कार्य ही नहीं है,तो यही तर्क कारणहेतु के विषय में भी स्वीकार करना चाहिए।