Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा तद्व्याप्तिग्रहश्च यदि स्वत एव, तदा पूर्वेण किमपराद्धं येनानुमानान्तरं मृग्यते । अनुमानान्तरेण चेत् ; तहि युगसहस्त्रेष्वपि व्याप्तिग्रहणासम्भवः ।
___२०-ननु यदि निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमविचारकम् तहि तत्पृष्ठभावी विकल्पो व्याप्ति ग्रहीष्यतीति चेत्, नैतत्,निर्विकल्पकेन व्याप्तेरग्रहणे विकल्पेन ग्रहीतुमशक्यत्वात् निर्विकल्पकगृहीतार्थविषयत्वाद्विकल्पस्य । अथ निर्विकल्पकविषयनिरपेक्षोऽर्थान्तरगोचरो विकल्पः; स तहि प्रमाणमप्रमाणं वा?। प्रमाणत्वे प्रत्यक्षानुमानातिरिक्तं प्रमाणान्तरं तितिक्षितव्यम् । अप्रामाण्ये तु ततो व्याप्तिग्रहणश्रद्धा षण्डात्तनयदोहदः । एतेन--'अनुपलम्भात् कारणव्यापकानुपलम्भाच्च कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावावगमः' इति प्रत्युक्तम्, अनुपलम्भस्य प्रत्यक्षविशेषत्वेन कारणव्यापकानुपलम्भयोश्च लिङ्गत्वेन तज्जनितस्य तस्यानुमानत्वात्, प्रत्यक्षानुमानाम्भां च व्याप्तिग्रहणे दोषस्याभिहितत्वात् ।
२१-वैशेषिकास्तु प्रत्यक्षफलेनोहापोहविकल्पज्ञानेन व्याप्तिप्रतिपत्तिरित्याहुः। अगर दूसरे अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण स्वतः स्वीकार करो तो पहले अनुमान ने क्या अपराध किया है कि वहाँ भी स्वतः व्याप्तिग्रहण न स्वीकार किया जाय ? अनुमानान्तरों की कल्पना करने पर हजारों युग बीत जाने पर भी कभी व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकेगा।
२०-शंका-यदि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अविचारक है (इस कारण व्याप्ति को नहीं ग्रहण कर सकता तो न सही ), प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाला विकल्पज्ञान व्याप्ति को ग्रहण कर लेगा। समाधान-जब निर्विकल्पक प्रत्यक्ष व्यप्ति को ग्रहण नहीं कर सकता तो विकल्प भी नहीं कर सकता, क्योंकि निर्विकल्पक के द्वारा गृहीत विषय में ही विकल्प की प्रवृत्ति होती है।
शंका-विकल्प निविकल्पक के विषय की अपेक्षा नहीं रखता और उसके द्वारा न जाने हुए अर्थ को भी विषय करता है । समाधान---तो वह विकल्प प्रमाण है या अप्रमाण? यदि प्रमाण है तो उसे प्रत्यक्ष और अनुमान से अलग ही प्रमाण मानना चाहिए । (वही अलग प्रमाण ऊह कहलाता है) । यदि विकल्प अप्रमाण है तो उससे व्याप्तिग्रहण को श्रद्धा करना हिजडे से सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करने के समान है।
पूर्वोक्त विषयविवेचन से इस अभिमत का भी निराकरण हो जाता है कि---'अनुपलम्भ से कारणानुपलम्भ से तथा व्यापकानुपलम्भ से कार्यकारणभाव और व्याप्यव्यापकभाव का ज्ञान हो जाता है।' क्योंकि अनुपलंभ एक प्रकार का प्रत्यक्ष है तथा कारणानुपलंम और व्यापकानुपलंभ लिंग-साधनरूप हैं। उनसे जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह अनुमान ही कहलाएगा। और प्रत्यक्ष तथा अनुमान से व्याप्ति ग्रहण मानने में जो दोष आते हैं, वे पहले ही कहे जा चुके हैं।
२१-वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष के फल ऊहापोहरूप विकल्प ज्ञान से व्याप्ति की सिद्धि बताई है,