Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
कृतमेकत्वविषयं भविष्यति । नैवम्,इन्द्रियस्य स्वविषयानतिलङ्घनेनैवातिशयोपलब्धेः, न विषयान्तरग्रहणरूपेण |यदाह भट्टः
यश्चाप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् ।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यात् न रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥"(श्लोकवा० सूत्र २ श्लो०११४] इति । तत् स्थितमेतत् विषयभेदात्प्रत्यक्षादन्यत्परोक्षान्तर्गतं प्रत्यभिज्ञानमिति ।
१५-न चैतदप्रमाणम् विसंवादाभावात् । क्वचिद्विसंवादादप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि तथा प्रसङ्गो दुनिवारः । प्रत्यभिज्ञानपरिच्छिन्नस्य चात्मादीनामेकत्वस्याभावे बन्धमोक्षव्यवस्था नोपपद्यते । एकस्यैव हि बद्धत्वे मुक्तत्वे च बद्धो दुःखिमात्मानं जानन् मुक्तिसुखार्थी प्रयतेत । भेदे त्वन्य एव दुःख्यन्य एव सुखीति कः किमर्थं वा प्रयतेत?। तस्मात्सकलस्य दृष्टादृष्टव्यवहारस्यैकत्वमूलत्वादेकत्वस्य च प्रत्यभिज्ञायत्तजीवितत्वा' द्भवति प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमिति ॥४॥
१६-अथोहस्य लक्षणमाह
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः ॥५॥ स्मरण की सहायता से एकत्व को जानने लगेगी। समाधान-नहीं । इन्द्रिय में जो अतिशय
शष्टय) देखा जाता है, वह अपने विषय को उल्लंघन न करके देखा जाता है । विषयान्तर को ग्रहण करने के रूप में कोई अतिशय नहीं हो सकता । भट्ट ने कहा है
'इन्द्रिय में जहाँ कहीं भी अतिशय देखा गया है, वह अपने विषय का अतिक्रमण न करके ही देखा गया है । चक्षु में दूर तक या सूक्ष्म वस्तु को देखने का अतिशय हो सकता है, परन्तु रूप में श्रोत्रेन्द्रिय का व्यापार तो संभव नहीं हो सकता।'
१५-प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण हो, सो बात भी नहीं है। क्योंकि उसके विषय में विसंवाद नहीं होता। किसी तरह विसंवाद होने से उसे सर्वत्र अप्रमाण माना जाय तो प्रत्यक्ष भी अप्रमाण हो जाएगा (क्योंकि कहीं-कहीं प्रत्यक्षदृष्ट पदार्थ में भी विसंवाद हो जाता है।) प्रत्यभिज्ञान द्वारा प्रतीत होने वाली आत्मा आदि की एकता को हो स्वीकार न किया जाय तो बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। जो बद्ध होता है वही मुक्त होता है, ऐसा मानने पर ही यह संगत हो सकता है कि बद्ध जीव अपने आपको दुखी जान कर, मुक्ति-सुख का अभिलाषी हो कर उसके लिये प्रयत्न करता है यदि पूर्वोत्तर पर्याय में व्याप्त एकत्व न माना जाय तो यह मानना होगा कि बद्ध कोई अन्य होता है और मुक्त कोई अन्य होता है। ऐसी स्थिति में कौन किसके लिए प्रयत्न करेगा समस्त दृष्ट व्यवहारों का आधार द्रव्यगत एकत्व है और वह एकत्व प्रत्यभिज्ञा के अधीन है । अतएव प्रत्यभिज्ञा प्रमाण है ॥४॥
१६-ऊह का लक्षण
सूत्रार्थ-उपलम्भ और अनुपलम्भ के निमित्त से होने वाला व्याप्तिज्ञान ऊह (तर्क) कहलाता है ॥५॥