Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा २५-यदा तु व्याप्यधर्मतया व्याप्तिविवक्ष्यते तदा 'व्याप्यस्य वा' गमकस्य 'तत्रव' व्यापके गम्ये सति यत्र धर्मिणि व्यापकोऽस्ति तत्रैव 'भावः' न तदभावेऽपि व्याप्तिरिति । अत्रापि नैवमवधार्यते-व्याप्यस्यैव तत्र भाव इति,हेत्वभावप्रसङ्गादव्याप्यस्यापि तत्र भावात् । नापि-व्याप्यस्य तत्र भाव एवेति, सपक्षकदेशवृत्तेरहेतुत्वप्राप्तेः साधारणस्य च हेतुत्वं स्यात्, प्रमेयत्वस्य नित्येष्ववश्यंभावादिति । - २६-व्याप्यव्यापकधर्मतासङ्कीर्तनं तु व्याप्तेरुभयत्र तुल्यधर्मतयकाकारा प्रतीतिर्मा भूदिति प्रदर्शनार्थम् । तथाहि-पूर्वत्रायोगव्यवच्छेदेनावधारणम् उत्तरत्रान्ययोगव्यवच्छेदेनेति कुत उभयत्रैकाकारता व्याप्तेः?। तदुक्तम्
"लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव लिङ्गिन्येवेतरत् पुनः ।
नियमस्य विपर्यासेऽसम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः ॥” इति ॥६॥ २७-अथ क्रमप्राप्तमनुमानं लक्षयति
साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम् ॥७॥ .. २५-जब व्याप्ति की विवक्षा व्याप्य-धर्म के रूप में की जाती है तब उसका रूप यों होता है-'व्याप्य (गमक-हेतु)का व्यापक के होने पर ही होना ।' अर्थात् जिस पर्वत आदि धर्मों में व्यापक है वहीं व्याप्य का (धूम का) होना, व्यापक के अभाव में न होना।
यहाँ भी व्यापक के होने पर व्याप्य का ही होना ऐसा अवधारण नहीं किया गया है। क्योंकि ऐसा अवधारण करने से हेतु के अभाव का प्रसंग हो जाता है। पर्वतादि में अव्याप्य (अग्नि)का भी अस्तित्व होता है । 'जहाँ व्यापक है वहाँ व्याप्य का होना ही' इस प्रकार का अवधारण भी नहीं किया जाता है । ऐसा करने से जो हेतु सपक्ष के एक देश में रहता है वह हेतु नहीं कहलाएगा और साधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास भी हेतु हो जाएगा, क्योंकि प्रमेयत्व नित्य पदार्थों में होता ही है।
२६-व्याप्ति व्याप्य और व्यापक दोनों का धर्म है, ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि यह साध्य और साधन-दोनों में बराबर एक रूप से प्रतीत न हो । वह जब व्याप्य के धर्म रूप में विवक्षित होती है तो अयोगव्यवच्छेद रूप में अवधारण होता है, और जब व्यापक के धर्म के रूप में विवक्षित की जाती है तो २अन्ययोगव्यवच्छेद रूप में अवधारण होता है। अतएव दोनों जगह उसका आकार-स्वरूप-एक-सा नहीं हो सकता है। कहा भी है'साधन के होने पर साध्य होता ही है, मगर साध्य के होने पर साधन होता भी है और नहीं भी होता है । इस नियम का विपर्यास होने पर साध्य-साधन का सम्बन्ध नहीं बन सकता॥६॥
२७-अनुमान का लक्षण-(सूत्रार्थ)-साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है ॥७॥ १'होना ही' यह अयोगव्यवच्छेद है, क्योंकि यहाँ अभाव का निषेध किया गया है। २व्यापक के होने पर ही होना, यहाँ व्यापक से अन्य-अव्यापक के होने पर होने का निषेध किया गया है।
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