Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा तेषामप्यध्यक्षफलस्य प्रत्यक्षानुमानयोरन्यतरत्वे व्याप्तरविषयीकरणम्, तदन्यत्वे च प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः। अथ व्याप्तिविकल्पस्य फलत्वान्न प्रमाणत्वमनुयोक्तुं युक्तम्; न, एतत्फलस्यानुमानलक्षणफलहेतुतया प्रमाणत्वाविरोधात् सन्निकर्षफलस्य विशेषणज्ञानस्येव विशेष्यज्ञानापेक्षयेति ।
२२-यौगास्तु तर्कसहितात् प्रत्यक्षादेव व्याप्तिग्रह इत्याहुः । तेषामपि यदि न केवलात् प्रत्यक्षाद् व्याप्तिग्रहः किन्तु तर्कसहकृतात् तहि तर्कादेव व्याप्तिग्रहोऽस्तु । किमस्य तपस्विनो यशोमार्जनेन, प्रत्यक्षस्य वा तर्कप्रसादलब्धव्याप्तिग्रहापलापकृतघ्नत्वारोपेणेतिः। अथ तर्कः प्रमाणं न भवतीति न ततो व्याप्तिग्रहणमिष्यते । कुतः पुनरस्य न प्रमाणत्वम्, अव्यभिचारस्तावदिहापि प्रमाणान्तरसाधारणोऽस्त्येव? । व्याप्तिलक्षणेन विषयेण विषयसत्त्वमपि न नास्ति । तस्मात् प्रमाणान्तरागृहीतव्याप्तिग्रहणप्रवणः प्रमाणान्तरमूहः ॥५॥
२३-व्याप्ति लक्षयति--- परन्तु प्रत्यक्ष का फल प्रत्यक्ष (यह घट है, इत्यादि) या अनुमान (यहाँ अग्नि होना चाहिए क्योंकि धूम है, इत्यादि) इन दोनों में से कोई भी एक मानने पर सार्वत्रिक-त्रैकालिक व्याप्ति बन ही नहीं सकती, कारण प्रत्यक्ष का विषय इतना व्यापक नहीं होता । और प्रत्यक्ष तथा अनुमान से भिन्न फल मानने पर अन्य प्रमाण मानने का प्रसंग आयेगा। यदि 'व्याप्तिविकल्प को फल होने के कारण प्रमाण कहना यक्त नहीं होगा' ऐसा कहा जाय तो वह अयुक्त होगा, क्योंकि अनुमानरूप फल का कारण होने से प्रत्यक्ष के फल को प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं आता। जैसे विशेष्य ज्ञान की अपेक्षा से सन्निकर्ष के विशेषण ज्ञान को भी प्रमाण माना गया है।
२२-योग तर्कसहित प्रत्यक्ष से ही व्याप्ति का ग्रहण मानते हैं । उनके मतानुसार यदि अकेले प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता किन्तु तर्कसहित से ही होता है तो उन्हें तर्क से ही व्याप्ति का ग्रहण मानना चाहिए । बेचारे तर्क के यश को नष्ट करने से क्या लाभ ? तर्क के प्रसाद से व्याप्ति का ग्रहण करनेका अपलाप करने की कृतघ्नता प्रत्यक्ष में आरोपित करने से भी क्या लाभ है ?
शंका-तर्क प्रमाण नहीं है, इस कारण उससे व्याप्ति ग्रहण होना न कह कर प्रत्यक्ष से व्याप्तिग्रहण होना कहते हैं । समाधान-तर्क प्रमाण क्यों नहीं है ? जैसे अन्य प्रमाणों में व्यभिचार का अभाव होता है, वैसा इसमें भी है । व्याप्ति उसका विषय है, अतएव वह निविषय भी नहीं है। इसप्रकार किसी भी प्रमाणान्तर से न ग्रहण की जाने वाली व्याप्ति को ग्रहण करने वाला ऊह प्रमाण ही है ॥५॥
२३-व्याप्ति का लक्षण