Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
६५
क्वात्मानौ भिन्नाभिन्नावन्यथैकान्तवादप्रसक्तिस्तथा च सत्यनवस्था ३ । येन च रूपेण मेहस्तेन भेदश्चाभेदश्च येन चाभेदस्तेनाप्यभेदश्च भेदश्चेति सङ्करः ४ । येन रूपेण भेदस्तेनाभेदो येनाभेदस्तेन भेद इति व्यतिकरः ५ । भेदाभेदात्मकत्वे च वस्तुनो विविक्तेनाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः ६ । ततश्चाप्रतिपत्तिः ७ इति न विषयव्यवस्था ८। नैबम् ; प्रतीयमाने वस्तुनि विरोधस्यासम्भवात् । यत्सन्निधाने यो नोपलभ्यते स तस्य विरोधीति निश्चीयते । उपलभ्यमाने च वस्तुनि को विरोधगन्धावकाशः ? । नीलानीलयोरपि यद्येकत्रोपलम्भोऽस्ति तदा नास्ति विरोधः । एकत्र चित्रपटीज्ञाने सौगतैर्नीला
विधानभ्युपगमात्, योगैश्चैकस्य चित्रस्य रूपस्याभ्युपगमात्, एकस्यैव च पटादेश्चलाचलरक्तारक्तावृतानावृतादिविरुद्धधर्माणामुपलब्धेः प्रकृते को विरोधशङ्का-वकाशः ? । एतेन वैयधिकरण्यदोषोऽप्यपास्तः; तयोरेकाधिकरणत्वेन प्रागुक्तयुक्तिदिशा
३ - अनवस्था जिस स्वरूप से भेद और जिस स्वरूप से अभेद है। वे दोनों स्वरूप भी भिन्नमिन मानने पडेंगे । नहीं मानेंगे तो एकान्तवाद का प्रसंग हो जायगा । भिन्नाभिन्न मानने पर अनवस्था दोष होगा। क्योंकि प्रत्येक भेदाभेद के लिए नये-नये स्वरूप की कल्पना करनी पडेगी ।
४- संकर-जिस स्वभाव से भेद है उसी स्वभाव से भेद और अभेद भी मानना पडेगा और जिस स्वभाव से अभेद है उस स्वभाव से अभेद और भेद भी मानना होगा। इस तरह संकर दोव का प्रसंग आता है ।
५ - व्यतिकर-जिस स्वरूप से भेद होगा, उसी स्वरूप से अभेद भी होगा और जिस स्वरूप. से अभेद है उसी स्वरूप से भेद भी होगा। यह व्यतिकर दोष है ।
६ - संशय-वस्तु को भेदाभेदात्मक स्वीकार करनेपर पृथक् रूप से निश्चित करना अशक्य जायगा अतएव संशय दोष की प्राप्ति होगी ।
७- अप्रतिपत्ति-संशय होने पर ठीक ज्ञान का अभाव होगा ।
८- विषयव्यवस्थाहानि -ज्ञान का अभाव होने से विषय की व्यवस्था नष्ट हो जाएगी ।
समाधान - स्याद्वाद में इन दोषों के लिए कोई अवकाश नहीं है। प्रतीत होने वाली वस्तु
में विरोध होना असंभव है । जिस पदार्थ के होने पर जो पदार्थ उपलब्ध न हो, वह उसका विरोधी है, ऐसा समझा जाता है। मगर उपलब्ध होने वाली वस्तु में विरोध की गंध के लिए भी कहाँ अवकाश है ? नील और अनील में विरोध होने का कारण उनकी एकत्र अनुपलब्धि है । यदि ये दोनों एकत्र उपलब्ध होते तो उनमें भी विरोध न होता। बौद्धोंने एक ही चित्रपटज्ञान में नील और अनील का विरोध स्वीकार नहीं किया है। यौगों ने चित्र रूप को एक ही माना है। एक ही वस्त्र आदि में चलता, अचलता, रक्तता, अरक्तता, आवृतता, अनावृतता आदि परस्पर विरोधी धर्म पाये जाते हैं। तो फिर एक ही वस्तु में द्रव्य-पर्यायरूपता मानने में विरोध की शंका के लिए भी कहाँ अवकाश है ? विरोध दोष के परिहार से वैयधिकरण्य दोष का भी परिहार हो जाता है, क्योंकि द्रव्यपर्याय रूपता एक ही वस्तु में पूर्वोक्त युक्तियों के अनुसार