Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
प्रतीतेः । यदप्यमवस्थानं दूषणमुपन्यस्तम् , तदप्यनेकान्तवादिमतानभिज्ञेनैव, तन्मतं हि द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यपर्यायावेव भेदः भेदध्वनिना तयोरेवाभिधानात्, द्रव्यरूपेणाभेदः इति द्रव्यमेवाभेदः एकानेकात्मकत्वाद्वस्तुनः। यौ च सरव्यतिकरौ तौ मेचकज्ञाननिदर्शनेन सामान्यविशेषदृष्टान्तेन च परिहतौ । अथ तत्र तथाप्रतिभासः समाधानम् ; परस्यापि तदेवास्तु प्रतिभासस्यापक्षपातित्वात् । निर्णीते चार्थे संशयोऽपि न युक्तः, तस्य सकम्पप्रतिपत्तिरूपत्वादकम्पप्रतिपत्तौ दुर्घटत्वात् । प्रतिपन्ने च वस्तुन्यप्रतिपत्तिरिति साहसम् । उपलब्ध्यभिधानादनुपलम्भोऽपि न सिद्धस्ततो नाभाव इति दृष्टष्टाविरुद्धं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्त्विति ॥३२॥
१३१-ननु द्रव्यपर्यायात्मकत्वेऽपि वस्तुनः कथमर्थक्रिया नाम ?। सा हि क्रमा(एक ही चित्रज्ञान में अनेक आकारों को मोति आदि के सनान) प्रतीत होती है।
. अनेकान्तवाद में अनवस्था दोष वही कहता है जो उससे अनभिज्ञ है । अनेकान्तवादियों का मत तो यह है कि द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में 'यह द्रव्य है, यह पर्याय है' इस प्रकार भिन्न-- भिन्न शब्दों द्वारा कथन होने से 'द्रव्य-पर्याय' यही भेद है और द्रव्य रूप से अभेद है अर्थात् जब उसी वस्तु को द्रव्य रूप में ग्रहण किया जाता है तो अभेद होता है । इस प्रकार वस्तु एक और अनेक रूप है। (सर्वथा भेदाभेद न होने से अनवस्था को अवकाश नहीं है।
संकर और व्यतिकर नामक जो दोष बतलाए हैं, उनका परिहार १ मेचकज्ञान' और २सामान्य-विशेष'अर्थात् अपर-सामान्य से हो जाता है । कदाचित् ऐसा कहा जाय कि मेचकज्ञान आदि में तो अनेकाकारों का प्रतिमास होता है तो यहाँ भी यही समाधान समझना चाहिए, अर्थात् जैसे एक मेचकज्ञान में अनेक आकारों की प्रतीति होने से दोष नहीं है, उसी प्रकार यहाँ अनेकान्तवाद में भी एक वस्तु में अनेक धर्मों की प्रतीति होती है, अतएव दोष नहीं है । क्योंकि प्रतिभास पक्षपाती नहीं होता।
निर्णीत वस्तु में संशय कहना भी अयुक्त है । संशय चलायमान प्रतिपत्तिरूप होता है, अतएव जहाँ निश्चल प्रतिपत्ति हो वहाँ उसके लिए अवकाश नहीं है ।
जो वस्तु प्रतिपन्न (विज्ञान-प्रमाणसिद्ध) है, उसमें अप्रतिपत्ति दोष बतलाना साहस का ही काम है।
उपलब्धि के अभिधान से अनुपलब्धि भी सिद्ध नहीं होती, अतएव विषय--व्यवस्था का अमाव नहीं होता। इस प्रकार वस्तु द्रव्य-पर्यायस्वरूप है, यह तथ्य प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरुद्ध है ॥३२॥ .. १३१-शंका-वस्तु द्रव्यपर्यायमय हो तो भी उससे अर्थक्रिया कैसे हो सकती है ? अर्थ
१पांचों वर्णों वाला रत्न । २गोत्व आदि अपर सामान्य, सामान्य-विशेष कहलाते हैं । गोजातीय समस्त पदार्थो में रहने से गोत्व सामान्य है और विजातीय पदार्थों से व्यावत्त होने के कारण विशेष भी है।