Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा किं त्वस्य विनिवर्तन्ते सुखदुःखादिलक्षणाः । अवस्थास्ताश्च जायन्ते चैतन्यं त्वनुवर्तते ॥ स्यातामत्यन्तनाशे हि कृतनाशाकृतागमौ। सुखदुःखादिभोगश्च नैव स्यादेकरूपिणः ॥
न च कर्तृत्वभोवतृत्वे पुंसोऽवस्थां समाश्रिते। ततोऽवस्थावतस्तत्त्वात कतैवाप्नोति तत्फलम् ॥" [तत्त्वसं०का०२२३-२२७] इति अननकान्तनिन्यानित्यवादव्युदासः । 'आत्मा' इत्यनात्मवादिनो व्युदस्यति । कायप्रमाणता त्वात्मनः प्रकृतानुपयोगान्नोक्तेति सुस्थितं प्रमातृलक्षणम् ॥४२॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायाः प्रमाणमीमांसायास्तवृत्तेश्च
प्रथमस्याध्यायस्य प्रथममाह्निकम्
किन्तु आत्मा की सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ नष्ट होती रहती हैं और उत्पन्न होती रहती हैं; मगर चैतन्य ज्यों का त्यों स्थिर बना रहता है ।
आत्मा.को एकान्त विनाशशील मान लिया जाय तो कृतकर्मप्रणाश (किये कर्म का फल न भोगना) और अकृतकर्मागम (बिना किये कर्मों का फल भोगना) दोषों का प्रसंग होता है। यदि आत्मा को एकान्त नित्य माना जाय तो सुख-दुःख आदि विविध प्रकार के पर्यायों का होना संभव नहीं है।
कर्तृत्व और मोक्तृत्व आत्मा में नहीं होते, उसकी अवस्थाओं में होते हैं, यह कल्पना संगत नहीं क्योंकि अवस्थाओं से अवस्थावान् भिन्न नहीं है। दोनों में कथचित् अभेद है। अतएव कर्म का कर्ता ही उसका फल भोगता है।'
इस कथन के द्वारा आत्मा के एकान्त नित्यत्व और एकान्त अनित्यत्व का निराकरण किया गया है । 'आत्मा' शब्द के प्रयोग से अनात्मवाद का विरोध किया किया है । आत्मा शरीरपरिमित है, यह बात प्रकृत में उपयोगी न होने से नहीं कही गई है।
यह प्रमाता का लक्षण सिद्ध हुआ ॥४२॥
इस प्रकार आचार्य श्री हेमचद्रद्वारा विरचित प्रमाणमीमांसा और उसकी वृत्तिके :
प्रथम अध्याय का प्रथम आह्निक पूर्ण हवा ।