Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
५- ननु स्वतन्त्राण्येव स्मृत्यादीनि प्रमाणानि किं नोच्यन्ते ?, किमनेन द्रविड. मण्डकभक्षणन्यायेन?। मैवं वोचः, परोक्षलक्षणसङ्गृहीतानि परोक्षप्रमाणान्न विभेदवर्तीनि; यथैव हि प्रत्यक्षलक्षणसङ्गृहीतानीन्द्रियज्ञान-मानस स्वसंवेदन- योगिज्ञानानि सौगतानां न प्रत्यक्षादतिरिच्यन्ते, तथैव हि परोक्षलक्षणाक्षिप्तानि स्मृत्यादीनि न मूलप्रमाणसङ्ख्यापरिपन्थीनीति । स्मृत्यादीनां पञ्चानां द्वन्द्वः ॥५॥
६- तत्र स्मृतिं लक्षयति
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वासनोद्बोध हेतुका तदित्याकारा स्मृतिः ||३||
७- 'वासना संस्कारस्तस्याः 'उद्बोधः' प्रबोधस्तद्धेतुका तन्निबन्धना' "कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्वा' [विशेषा०गा० ३३३ ] इति वचनाच्चिरकालस्थायिन्यपि वासनानुद्बुद्धा न स्मृतिहेतुः, आवरणक्षयोपशम-सदृशदर्शनादिसामग्री लब्धप्रबोधा तु स्मृतिं जनयतीति 'वासनोद्बोधहेतुका' इत्युक्तम् । अस्या उल्लेखमाह 'तदित्याकारा' सामान्यदेवतौ नपुंसक निर्देशस्तेन स घटः, सा पटी तत् कुण्डलमित्युल्लेखवती मतिः स्मृतिः ।
५ - शंका-स्मृति आदि को स्वतंत्र ही प्रमाण क्यों नहीं कहते ? इस द्रविडमण्डकभक्षण न्याय को चरितार्थ करने से क्या लाभ? अर्थात् सबको गड्डमगड्डु-सेलभेल क्यों करते हैं ? समाधान - ऐसा न कहो । जो प्रमाण परोक्ष के लक्षण में अन्तर्गत हो जाते हैं, वे परोक्ष से पृथक् नहीं हो सकते । जैसे बौद्धमत के अनुसार इन्द्रियज्ञान, मानसज्ञान, स्वसंवेदन और योगिज्ञान, प्रत्यक्ष के लक्षण में संगृहीत होने से प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं हैं, इसी प्रकार स्मृति आदि परोक्ष के लक्षण में अन्तर्गत हो जाते हैं । अतएव प्रमाण के मूल दो भेदों में ये बाधक नहीं हैं। स्मृति आदि पाँचों पदों में द्वन्द्व समास है ॥२॥
६-स्मृति का स्वरूप- (सूत्रार्थ ) - वासना की जागृति जिसमें कारण हो और 'वह' ऐसा' जिसका आकार हो, वह ज्ञान स्मृति है ॥ ३॥
७- स्मृतिज्ञान वासना अर्थात् धारणानामक संस्कार से उत्पन्न होता है । विशेषावश्यक - माध्य में कहा है- 'धारणा असंख्यात या संख्यात काल तक रहती है' इस कथन के अनुसार, चिरकाल तक स्थायी रहने वाली वासना भी यदि जागृत न हो तो उससे स्मृति की उत्पत्ति नहीं हो सकती । आवरण के क्षयोपशम तथा सदृश पदार्थ के दर्शन आदि कारणों से जब वासना उद्बुद्ध होती है, तभी वह स्मृति को उत्पन्न करती है। अतएव उसे वासना की जागृति से उत्पन्न ' होने वाली कहा है । तत्' अर्थात् 'वह' ऐसा स्मृति ज्ञान का आकार होता है । सामान्य की विवक्षा से 'तत्' इस नपुंसकलिंग का प्रयोग किया गया है. उससे 'वह घट' 'वह पटी' और 'वहः कुण्डल' इस प्रकार का उल्लेख करने वाली सब बुद्धियों को स्मृति समझना चाहिए ।