Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
अर्थस्य' द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थक्रियाक्षमस्य 'ग्रहणम्', सम्यगर्थनिर्णयः' इति सामान्य-- लक्षणानुवृत्तनिर्णयो न पुनरविकल्पकं दर्शनमात्रम् 'अवग्रहः।।
९८-न चायं मानसो विकल्पः, चक्षुरादिसन्निधानापेक्षत्वात् प्रतिसंख्यानेनाप्रत्याख्येयत्वाच्च । मानसो हि विकल्पः प्रतिसंख्यानेन निरुध्यते, न चायं तथेति न विकल्पः ॥२६॥
अवगृहीतविशेष काड्-क्षणमीहा ॥२७॥ ___ ९९-अवग्रहगृहीतस्य शब्दादेरर्थस्य शब्दः 'किमयं शाङ्घःशाङ्गों वा' इति संशये सति 'माधुर्यादयः शाङ्घधर्मा एवोपलभ्यन्ते न कार्कश्यादयः शार्ङ्गधर्माः' इत्यन्वयव्यतिरेकरूपविशेषपर्यालोचनरूपा मतेश्चेष्टा 'ईहा' । इह चावग्रहहयोरन्तराले अभ्यस्ते ऽपि विषये संशयज्ञानमस्त्येव आशुभावात्तु नोपलक्ष्यते । न तु प्रमाणम्, सम्यगर्थनिर्णयात्मकत्वाभावात् ।
१००--ननु परोक्षप्रमाणभेदरूपमूहाख्यं प्रमाणं वक्ष्यते तत्कस्तस्मादीहाया भेदः ?। उच्यते-त्रिकालगोचरः साध्यसाधनयोाप्तिग्रहणपटरूहो यमाश्रित्य"व्याप्तिग्रहणकाले योगीव सम्पद्यते प्रमाता" इति न्यायविदो वदन्ति । ईहा तु वार्त्तमानिकार्थविषया प्रत्यक्षप्रभे इत्यपौनरुक्त्यम् । इस प्रकार द्रव्य और पर्याय रूप तथा अर्थक्रिया में समर्थ पदार्थ का सम्यक निर्णय होना अवग्रह है । प्रमाण सामान्य के लक्षण की अनुवृत्ति होने से 'निर्णय' को ही अवग्रह समझना चाहिए, निर्विकल्प दर्शन मात्र को नहीं। : ९८-अवग्रह मानस विकल्प भी नहीं है, क्योंकि उसमें चक्षु आदि इन्द्रियों के सन्निधान की आवश्यकता होती है और प्रतिसंख्याननामक समाधि से उसका विनाश नहीं होता। (बौद्धमतानुसार) मानस विकल्प प्रतिसंख्यान समाधि से नष्ट हो जाता है। किन्तु अवग्रह का प्रतिसंख्यान से विरोध नहीं होता, अतएव इसे मानस विकल्प नहीं माना जा सकता ॥२६॥
अर्थ-अवग्रह द्वारा गृहीत पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा होना ईहा है ॥२७॥ . ९९-अवग्रह द्वारा जाने हुए शब्द आदि विषय में 'यह' शब्द शंख का है अथवा शृंग का?' इस प्रकार सन्देह होता है। तत्पश्चात् इसमें माधुर्य आदि शंख के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, कर्कशता आदि शृंग-शब्द के धर्म नहीं मालम होते, इस प्रकार विधि और निषेध रूप विशेषों की पर्यालोचना करने वाली मति की चेष्टा को ईहा कहते हैं। कोई वस्तु कितनी ही अधिक अभ्यस्त क्यों न हो,अवग्रह और ईहा के बीच में संशयज्ञान होता ही है, किन्तु शीघ्र हो जाने के कारण मालूम नहीं होता । हाँ, वह संशय प्रमाण नहीं है क्योंकि वह सम्यगर्थ निर्णयरूप नहीं है ।
१००-प्रश्न-परोक्ष प्रमाण के भेदों में एक 'ऊह' प्रमाण आगे कहा जाएगा । तो इस ईहा और ऊह में क्या अन्तर है ? उत्तर-ऊह प्रमाण त्रिकालसंबंधी साध्य-साधन की व्याप्ति को प्रहण करने में पटु होता है। न्यायवेत्ता कहते हैं कि प्रमाता व्याप्तिग्रहण के समय योगी के