Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
द्यक्षणो घटान्त्यक्षणस्य, जलचंद्रो वा नभश्चन्द्रस्य ग्राहकः प्राप्नोति, तदुत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च । अथ समस्ते; तहि घटोत्तरक्षणः पूर्वघटक्षणस्य ग्राहकः प्रसज्जति । ज्ञानरूपत्वे सत्यते ग्रहणकारणमिति चेत् तहि समानजातीयज्ञानस्य समनन्तरपूर्वज्ञानग्राहकत्वं प्रसज्येत । तन्न योग्यतामन्तरेणान्यद् ग्रहणकारणं पश्यामः ॥२५॥ ९६--'अवग्रहेहावायधारणात्मा' इत्युक्तमित्यवग्रहादील्लँक्षयति--
अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः ॥२६॥ ९७-अक्षम् इन्द्रियं द्रव्यभावरूपम्, अर्थः'द्रव्यपर्यायात्मा तयोः 'योगः' सम्बन्धोऽनतिदूरासन्नव्यवहितदेशाद्यवस्थानलक्षणा योग्यता । नियता हि सा विषयविषयिणोः, यदाह, "पुढें सुणेइ सई रूवं पुण पासए अपुठं तु॥"[ आव• नि० ५ ] इत्यादि । तस्मिन्नक्षार्थयोगे सतिदर्शनम्'अनुल्लिखितविशेषस्य वस्तुनः प्रतिपत्तिः। तदनन्तरमिति क्रमप्रतिपादनार्थमेतत् । एतेन दर्शनस्यावग्रहं प्रति परिणामितोक्ता, नासत एव सर्वथा कस्यचिदुत्पादः, सतो वा सर्वथा विनाश इति दर्शनमेवोत्तरं परिणाम प्रतिपद्यते । अतः वहाँ अकेली तदुत्पत्ति विद्यमान है।) जल-चंद्र आकाशचंद्र का ग्राहक होना चाहिए (क्योंकि वहाँ तदाकारता है ।) कदाचित् दोनों को सम्मिलित कारण माना जाय तो घट का उत्तरक्षण पूर्वक्षण से उत्पन्न भी होता है और उसके आकार का भी होता है । कदाचित् कहा जाय कि पूर्वोक्त पदार्थ जड़ होने से ग्रहण के कारण नहीं होते। जहाँ ज्ञानरूपता और तदुत्पत्ति तथा तदाकारता भी हो, वहीं ग्रहण होता है; तो समानजातीय ज्ञान अपने समनन्तर पूर्ववर्ती ज्ञान का ग्राहक होना चाहिए अर्थात् उत्तरकालीन घटज्ञान अपने समनन्तर पूर्ववर्ती घटज्ञान का ग्राहक होना चाहिए। (उसमें तदुत्पत्ति' तदाकारता और ज्ञानरूपता है, फिर भी वह पूर्ववर्ती घटज्ञान को नहीं जानता, बल्कि घट को जानता है।) अतएव योग्यता के अतिरिक्त ज्ञान का अन्य कोई कारण दिखाई नहीं देता॥२५॥
९६-अवग्रह का लक्षण-(अर्थ)-इन्द्रिय और पदार्थ का संबंध होने पर,दर्शन के पश्चात् होने वाला पदार्थ का ग्रहण अवग्रह कहलाता है।।२६।।
९७-द्रव्य और भाव रूप इन्द्रिय तथा द्रव्य-पर्याय रूप पदार्थ का संबंध अर्थात् न बहुत दूरी पर, न बहुत समीप में-उचित देशमें अवस्थान हेना । इसे योग्यता भी कहते हैं। विषय और विषयी में यह योग्यता नियत रूप में होती है। कहा भी है।'श्रोत्रंन्द्रिय स्पष्ट शब्द को ग्रहण करती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पष्ट रूप को देखती है।'
जब इन्द्रिय और पदार्थ का योग्य संबंध होता है। तो सर्वप्रथम दर्शन होता है अर्थात् वस्तु का सामान्य बोध होता है। उसके अनन्तर अवग्रह ज्ञान होता है। उपयोग का क्रम दिखलाने के लिए ऐसा कथन किया गया है इससे यह प्रतीत होता है कि दर्शन अवग्रह का परिणामी-उपादान कारण है । न तो सर्वथा असत् की उस्पत्ति होती है और न सत् का सर्वथा विनाश होता है, अतएव दर्शन ही आगे अवग्रह रूप में परिणत हो जाता है। १-बोद्ध दशन मे 'क्षण' शब्द पदार्थ का वाचक है।