Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
१०५--नन्वविच्युतिमपि धारणामन्वशिषन् वृद्धाः, यद्भाष्यकार:-"अविच्चुई धारणा होइ" [विशेषा० गा १८०) तत्कथं स्मृतिहेतोरेव धारणात्वमसूत्रयः ? । सत्यम् अस्त्यविच्युति म धारणा, किन्तु साऽवाय एवान्तर्भूतेति न पृथगुक्ता ।। अवाय एव हि दीर्घदीर्घोऽविच्युतिर्धारणेत्युच्यत इति ।स्मृतिहेतुत्वाद्वाऽविच्युतिर्धारणयव सङ्गहोता। न ह्यवायमात्रादविच्युतिरहितात् स्मृतिर्भवति,गच्छत्तृणस्पर्शप्रायाणामवायानां परिशीलनविकलानां स्मृतिजनकत्वादर्शनात् । तस्मात् स्मृतिहेतू अविच्युतिसंस्कारावनेनसङ्ग्रहीतावित्यदोषः । यद्यपि स्मृतिरपि धारणाभेदत्वेन सिद्धांतेऽभिहिता तथापि परोक्षप्रमाणभेदत्वादिह नोक्तेति सर्वमवदातम् ।
१०६--इह च क्रमभाविनामप्यवग्रहादीनां कथञ्चिदेकत्वमवसेयम् । विरुद्धधर्माध्यासो ह्येकत्वप्रतिपत्तिपरिपन्थी । न चाऽसौ प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रथितां भजते । अनुभूयते हि खलु हर्षविषादादिविरुद्धविवर्त्ताकान्तमेकं चैतन्यम् । विरुद्धधर्माध्यासाच्च विभ्यद्भिरपि कथमेकं चित्रपटी ज्ञानमेकानेकाकारोल्लेखशेखरमभ्युपगम्यते सौगतैः, चित्रं वा रूपं नैयायिकादिभिरिति ? ।
१०५--प्रश्न--प्राचीन आचार्योंने अविच्युति (अवायज्ञान के लगातार जारी रहने) को भी धारणा माना है। ऐसी स्थिति में आपने स्मृति के कारण को ही धारणा कैसे कहा? उत्तर-सत्य है। अविच्युति धारणा भी है, किन्तु उसका समावेश अवाय में ही हो सकता है, इस कारण उसे पृथक् नहीं कहा है । अवायज्ञान एक बार उत्पन्न होकर जब लम्बा-लम्बा होता जाता है, अन्तमहर्त तक चाल रहता है, तब वही अविच्यति धारणा कहलाता है। अथवा वह भी कहा जा सकता है कि अविच्युति भी स्मृति का कारण होने से धारणा ही है। अविच्युति के बिना अकेले अवाय मात्र से स्मृति की उत्पत्ति नहीं होती। जो अवाय परिशीलन से रहित होते हैं और अनध्यवसाय सरीखे होते हैं, वे स्मृति को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकते । अतएव स्मृतिहेतु' इस पद से ही 'अविच्युति' और 'संस्कार' दोनों का ग्रहण हो जाता है, इस प्रकार कोई बाधा नहीं रहती। यद्यपि सिद्धांत में स्मृति को भी धारणा कहा है, किन्तु परोक्ष का भेद होने से यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया गया है।
१०६-यद्यपि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रम से उत्पन्न होते हैं, फिर भी वे कथं. वित् एक ही हैं। परस्पर विरोधी धर्मों का होना एकत्व में बाधक होता है किन्तु जो वस्तु प्रमाण से जैसी सिद्ध है, उसमें विरुद्ध धर्माध्यास कोई बाधा नहीं पहुंचा सकता । एक ही चैतन्य में हर्ष विषाद आदि परस्पर विरोधी पर्यायों का पाया जाना अनुभवसिद्ध है, विरोधी धर्मों से डरने वाले बौद्धों ने भी एक ही चित्रपट ज्ञान में (नील-पीत आदि) अनेक आकारों का उल्लेख होना माना है और नैयायिकों ने एक ही अवयवी में अनेक रूपों का अस्तित्व स्वीकार किया है।